घन गरज गरज बरसो
तरसा कृषक देख रहा
आशा निराशा में डूब रहा
कितने जतन किये उसने
कब और कैसे रीझोगे
अनुष्ठान भी व्यर्थ हुए
मेघा तुम्हें मनाने के
भूल तो हुई सब से
तुम रूठे ही रहे ना आए
बारबार का क्रोध शोभा नहीं देता
सुख चैन मन का हर लेता
अब तो मन जाओ दुखी न करो
प्यासी धरा की तपन मिटने दो
आ जाओ मेधा आ जाओ
वर्षा जल का घट छलकाओ
आशा