10 जुलाई, 2014

मेघा आ जाओ



घन गरज गरज बरसो
तरसा कृषक देख रहा
आशा निराशा में डूब रहा
कितने जतन किये उसने
कब और कैसे रीझोगे  
अनुष्ठान भी व्यर्थ हुए
मेघा तुम्हें मनाने के
भूल तो हुई  सब से
तुम रूठे ही रहे ना आए
बारबार का क्रोध शोभा नहीं देता
सुख चैन मन का हर लेता
अब तो मन जाओ दुखी न करो
प्यासी धरा की तपन  मिटने  दो
आ जाओ मेधा आ जाओ
वर्षा जल का घट छलकाओ
आशा

09 जुलाई, 2014

फक्कड़







बहुत रोया जब जन्म लिया
माँ  की गोद में सोया
सब की बाहों में झूला
लगा खुशियों का मेला |
बचपन कब बीता याद नहीं
पर इतना अवश्य याद रहा
वह जीवन सीधा साधा था
चिंताओं  से बहुत दूर था |
हुआ किशोर मस्ती में जिया
मित्रों का प्रभाव अधिक हुआ
आगे क्या होगा न सोच सका
भावना  प्रधान होता गया |
यौवन ने दी दस्तक जब 
एक से दो और दो से चार हुए 
जिंदगी ढोना सीख लिया
जाने कब योवन बीत गया |
कब ज़रा ने घेरा दबे पाँव आकर
एहसास न हो पाया 
अब  है उसी से  याराना
आगे क्या होगा क्यूं सोचूँ|
पर हूँ उत्सुक जानने को
 जिंदगी  इतनी कट गई 
बहुत  बुरी भी न रही 
आगे न जाने क्या होगा |
आशा 

सचित्र तथ्य

05 जुलाई, 2014

थी वह एक छलना









पेड़ों से छन कर आती धूप
बड़ी सुहानी लगती
प्रातः सूर्य दर्शन का
अनोखा अंदाज देती  |
वीथियों पर चलते चलते
नए नए अनुभव होते
जब विहग व्योम में उड़ाते
मधुर संगीत मन में भरते |
महावरी कदम जब
श्वेत  पुष्पों पर पड़ते
उनसे लुका छिपी करते
छलकता यौवन मन हरता |
ओस से नहाया वदन
उस धूप छाँव में
 अधिक ही  दमकता
मन में बसता |
पायल की रुनझुन
घुंघरुओं की मधुर धुन
ज्यों ही सुनाई देती
मन में कई रंग भरती |
हाथ बढा उसे छूना चाहता
पर पहुँच से बहुत दूर
थी वह एक छलना
कवि की केवल कल्पना |
आशा