25 अप्रैल, 2014

वे न आये



अटखेलियाँ लहरों से
ताका झांकी पेड़ों से
तारों से गलबहियां होती
चांदनी चंचल बहकती |
तब भी मन नहीं भरता
सोचता किसे चुने
झील नदी या ताल
या समुंदर की लहरों को |
जुही रात में महकती
नवोढ़ा श्रृंगार करती
राह में पलकें बिछाए
पर होती निगाहें रीती |
चाँद तो आया भी
पर वे न आये
रात बीती सारी
यूं ही राह देखते |
प्रश्न उठा मन में
 चाँद क्यूं लगता अपना
वे रहे पराये
उसे अपना न पाए |
आशा

24 अप्रैल, 2014

प्यासी धरती प्यासा चातक


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तरसती है 
तपती दरकती 
प्यासी धरती |



प्यासी धरनी 
देखती आकाश में 
काले बादल |



कब हो वर्षा 

है इन्तजार उसे 

वर्षा ऋतु का |

                       

प्यासा चातक 
स्वाति नक्षत्र का ही
जल चाहता




चातक मन
यदि ना पाए उसे

प्यासा रहता |









22 अप्रैल, 2014

दुनिया रंग भरी

















दुनिया रंगों से भरी 
हर रंग जीवन में आता 
 किसका कैसा जीवन है
वही उसे परिलक्षित करता |
सात रंग से सजा इंद्र धनुष 
सातों फिर भी नहीं दीखते 
आपस में मिलने जुलने से
हाथ  मिला संधी करते | 
जब एक दूसरे पर होते हावी 
एक वजूद खोता अपना 
प्रथम में विलय हो जाता 
अद्भुद छटा  बिखराता |
सप्तपदी लगती आवश्यक 
अटूट बंधन में बंधने को 
जन्म  जन्म तक साथ रहे
मन्नत यही माँगते |
सात अजूबे दुनिया के 
सभी देखना चाहते 
कुछ ही होते भाग्यशाली 
उन्हें देखने का सुख पाते |
सात का होगा इतना महत्व 
पहले जान न पाया 
विचार शून्य सा होने लगा 
तभी जान पाया |
आशा 

20 अप्रैल, 2014

नया नया बना मतदाता


नया नया मतदाता बना 
था उत्साह
 प्रथम बार 
मतदान का|
इतने दिन बीत गए
 सुनते सुनते|
प्रजातंत्र में जीते हो
मताधिकार का प्रयोग करो
इसे वोट देना है
 कि उसे वोट देना है
स्वविवेक का प्रयोग करो|
प्रत्याशी हो ऐसा
जो कुछ कर पाए
देश हित हो सर्वोपरी
कठपुतली ना साबित हो|
जितने लोग उतने विचार
अलग उनकी विचार धारा
किसे चुने रोज सुनते
मन स्थिर ना हो पाता|
जाने क्यूं हतौत्साहित हुआ
पैर भारी होने लगे
कदम बढ़ना नहीं चाहते
लगता है मैं जागरूप नहीं|
अभी तक छबि धुधली सी है
किसे चुनूं मतदान करूँ
हूँ एक नया मतदाता 
क्या करूँ  समझ न पाता|
आशा

17 अप्रैल, 2014

पैनी धार



है बेवाक विचारों की परिचायक
बिकाऊ नहीं
ना ही लालायित
यशोगान के लिए |
है विशिष्ट सब से जुदा
अदभुद शक्ति छिपी इस में
भावाभीव्यक्ति के लिए |
किसी का प्रभाव न होता इस पर
ना बिकती धन के लिए
कोई  प्रलोभन झुका न पाता
उन्मुक्त भाव लेखन में होता |
पारदर्शिता की पक्षधर
यही है  लेखनी धार जिसकी पैनी
जो धार पर चढ़ जाता
उसका बुरा हाल होता |
जो सत्य से दूर भागता
इससे बच न पाता
इतना आहत होता
सलीब पर खुद चढ़ जाता |
यही बातें इसकी
मुझे इसका कायल बनातीं
मेरी लेखनी की धार
 अधिक तेज होती जाती |
आशा