यादों की मंजूषा 
है सुरक्षित ऊंचाई पर 
सोचती हूँ
कब वहाँ पहुंचूं|
कद मेरा छोटा सा 
मंद दृष्टि क्षीण काया 
ज़रा ने घेरा
फिर भी होता नहीं सबेरा |
ज़रा ने घेरा
फिर भी होता नहीं सबेरा |
यादों पर काली छाया 
वहाँ जाने नहीं देती 
पंखी  सा मन छटपटाता 
वहीं पहुँचना चाहता|
व्यस्तता ओढ़े हुए हूँ 
फिर भी मन बहकता 
उसी ऊंचाई पर पहुँच 
यादों में खोना चाहता|
बीते दिन लौट नहीं पाते 
यादों में बसे रहते 
जब भी एकांत मिलता
मंजूषा का पट खुलता|
मंजूषा का पट खुलता|
अतीत मेरे समक्ष होता 
उन लम्हों की मिठास 
मैं भूल नहीं पाती 
उनमें ही समाती जाती |
आशा
आशा







