एक सोच उभरता था  चाहे जब 
मुझे विश्राम  नहीं मिलता 
शैया आकर्षित करती थी 
जब तब सोने का मन होता था |
ना जाने क्यूं आज
 थकावट हुई बेचैनी बढी 
एक हादसे ने मेरा सुख छीना 
नींद चुराली |
पैर फिसला चोट लगी
सोचा अब तो आराम मिलेगा 
शैया पर पड़े रहना है 
यह मात्र कल्पना निकली |
अस्पताल का मुंह देखा 
वे दिन थे कितने कठिन 
कल्पना भयावह लगती है 
वहां जिन्दगी कितनी सस्ती है |
घर आई चैन की सांस ली 
सोच ने करवट बदली 
दो दिन भी न कट पाए शान्ति से
लगा जिन्दगी ठहर  सी गई है
बेमतलब लगने लगी है  |
 ख्यालों
ने सर उठाया
समय काटे नहीं कटता 
गति उसकी धीमीं लगती 
यह ठहराव रास नहीं आता |
अंतराल के बाद भी 
विश्राम से लगाव न हुआ 
असहज होने लगी हूँ 
अक्षमता का बोध जो है | |
लोग न जाने कैसे
 व्यर्थ
पड़े रहते हैं 
बिना किसी काम के
 जीवन
यूं ढोते हैं |
अब तो एक एक दिन
 भारी
लगने लगा है 
जाने कब छुटकारा होगा 
ऐसे मिले आराम से |
आशा 

