कचरे का जलता ढेर देख 
मन ही मन वह  मुस्काया 
क्यूं न हाथ सेके जाएं 
सर्दी से मुक्ति पाएं 
अपनी फटी चादर ओढ़ 
वहीं अपना डेरा जमाया 
हाथों को बाहर निकाला 
गर्मी का अहसास जगा 
अचानक एक चिंगारी ने  
चादर पर हमला बोला 
जाने कब सुलगाने लगी 
पता तक न चला
पता तक न चला
अहसास तब जागा जब 
 जलने की छुअन का वार  
  अधनंगे पैरों पर हुआ 
 भयभीत हो वह चिल्लाया 
उसे दूर छिटक कर भागा 
आवाज थी इतनी बुलंद 
हाथ से छूटा चाय का प्याला 
हुआ स्तब्ध एक क्षण के लिए 
गरीबी की  हंसी उड़ाने वाला 
फिर दुबका अपनी रजाई में  
मंहगाई के इस दौर में 
गरीब की आँखें भर आईं 
ठण्ड से बचाव का 
अंतिम साधन भी जल गया 
थी फटी तो क्या 
कुछ तो बचाव होता था
 अब कौन उसका बचाव करेगा 
ऐसा रहनुमा कहाँ मिलेगा 
जो दूसरी चादर देगा |
आशा