14 जनवरी, 2010

आतंक

जब कोई धमाका होता है ,
घना कोहरा छा जाता है ,
आतंक का घना साया ,
थर्रा देता है धरती को
सहमा देता है जन मानस को |
सन्नाटा अपने पैर जमाता ,
दिल दहल दहल रह जाता है ,
कम्पित होता है सकल जहाँ ,
पर हल कोई नजर नहीं आता !
राजनीति की रोटियाँ सेकी जाती हैं ,
सरहद भी बची नहीं इससे !
बेचा जाता है ईमान यहाँ ,
तब हरी भरी वादी में ,
आतंक अपना पैर जमाता है |
बड़े बड़े झूठे वादे ,
भ्रमित करते हैं जन जीवन को ,
इतनी भी साँस न ले पाते ,
सिसकते हुए अरमान यहाँ |
जब सोती है सारी दुनिया ,
जगती रहती है छोटी मुनिया ,
अंधकार के साये में ,
माँ उसको थपकी देती है ,
अपने बेजान हाथों से ,
उसको गोदी में लेती है |
हर आहट उसे हिलाती है ,
वह चौंक-चौंक रह जाती है ,
शायद कहीं कोई आये,
व्यर्थ हुआ इंतज़ार उसे रुलाता है ,
न ही कोई आता है ,
और न ही कोई आयेगा |
अविरल आँसुओं की झड़ी ,
ना तो रुकी है न रुक पायेगी ,
उसकी आँखें पथरा जायेंगी ,
करते करते इंतजार ,
आतंक बाँह पसारेगा ,
न होंगे सपने साकार,
यह आतंक का साम्राज्य ,
ले गया घरों का सुख छीन कर ,
कितनों के उजड़ गये सुहाग ,
किस माँ की उजड़ी गोद आज ,
बहनों ने भाई खोये हैं ,
उम्मीदों पर लग गये विराम ,
आतंकी दंश लगा सबको ,
जब दहशत गर्दों नें ,
फैलाये अपने पंख विशाल ।

आशा










1 टिप्पणी:

  1. A very realistic and heart touching poem. This terrorism should be curbed and eradicated from this world and the message of love and brotherhood should prevail all around. Very good poem. Congrats.

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