12 जून, 2010

तुम्हारे वादे और मैं

तुम्हारे वादों को ,
अपनी यादों में सजाया मैंने ,
तुम तो शायद भूल गए ,
पर मैं न भूली उनको ,
तुम्हारे आने का
ख्याल जब भी आया ,
ठण्ड भरी रात में
अलाव जलाया मैंने ,
उसकी मंद रोशनी में ,
हल्की-हल्की गर्मी में ,
तुम्हारे होने का ,
अहसास जगाया मन में ,
हर वादा तुम्हारा ,
मुझ को सच्चा लगता है ,
पर शक भी कभी ,
मन के भावों को हवा देता है ,
तुम न आए ,
बहुत रुलाया मुझको तुमने ,
ढेरों वादों का बोझ उठाया मैंने ,
ऊंची नीची पगडंडी पर ,
कब तक नंगे पैर चलूँगी ,
शूल मेरे पैरों में चुभेंगे ,
हृदय पटल छलनी कर देंगे ,
पर फिर से यादें तेरे वादों की,
मन के घाव भरती जायेंगी ,
मन का शक हरती जायेंगी ,
कभी-कभी मन में आता है ,
मैं तुम्हें झूठा समझूँ ,
या सनम बेवफा कहूँ ,
पर फिर मन यह कहता है ,
शायद तुम व्यस्त अधिक हो ,
छुट्टी नहीं मिल पाती है ,
या कोई और मजबूरी है ,
वहीं रहना जरूरी है ,
मुझको तो ऐसा लगता है ,
इसीलिए यह दूरी है |


आशा

8 टिप्‍पणियां:

  1. आपने ऐसे मन की अनुभूति लिखी है जो बे इन्तिहाँ प्यार करता है इसी लिए बेवफाई के बारे में ना सोच कर व्यस्तता के बारे में सोच रहा है...सुन्दर अभिव्यक्ति....ये विश्वास ही तो है जो उम्मीद दिलाता रहता है

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  2. http://geet7553.blogspot.com/2010/06/blog-post_10.html

    यहाँ आपका स्वागत है

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  3. Wonderful expression and composition. Its really a touching poem. Very beautiful and convincing. Today you will find a new poem on Unmanaa. Pl do check it.

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