दीपक ने पूछा पतंगे से
मुझ में ऐसा क्या देखा तुमने
जो मुझ पर मरते मिटते हो
जाने कहाँ छुपे रहते हो
पर पा कर सान्निध्य मेरा
तुम आत्महत्या क्यूँ करते हो
भागीदार पाप का
या साक्षी आत्मदाह का
मुझे बनाते जाते हो
जब भी मेरे पास आते हो |
जब तक तेल और बाती है
मुझको तो जलना होगा
अंधकार हरना होगा |
यह ना समझो
मैं बहुत सशक्त हूँ
मैं हूँ एक नन्हा सा दिया
नाज़ुक है ज्योति मेरी
एक हवा के झोंके से
मेरा अस्तित्व मिट जाता है ,
एक धुँआ सा उठता है ,
सब समाप्त हो जाता है ,
आग ज्वालामुखी में भी धधकती है ,
रोशनी भी होती है ,
दूर- दूर तक दिखती है ,
बहुतों को नष्ट कर जाती है ,
कितनों को झुलसाती है ,
लावा जो उससे निकलता है
उसका हृदय पिघलाता है
और ताप हर लेता है
पर तपिश उसकी
बहुत समय तक रहती है
विनाश बहुत सा करती है
वह शांत तो हो जाता है
पर स्वाभाव नहीं बदल पाता
जब चाहे उग्र हो जाता ,
ना तो मैं ज्वालामुखी हूँ
ना ही मेरी गर्मी उस जैसी
मैं तुमको कैसे समझाऊँ|
मैं तो एक छोटा सा दिया हूँ
अहित किसी का ना करना चाहूँ
पर हित के लिए जलता हूँ
तम हरने का प्रयत्न करता हूँ
शायद यही नियति है मेरी
इसी लिए मैं जलता हूँ |
आशा
बहुत ही अच्छी रचना. थॅंक्स
जवाब देंहटाएंबहुत ही ख़ूबसूरत रचना ! दीये और ज्वालामुखी के अंतर को बहुत सूक्ष्मता से विस्तार दिया है आपने अपनी कविता में ! इतनी भावमयी अभिव्यक्ति के लिए बधाई और शुभकामनाएं !
जवाब देंहटाएंखूबसूरत है दिये की अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंwaah nanhe se deepak ne ek bahut bada sandesh diya...abhaar...
जवाब देंहटाएंमानवता का संदेश देती बेहतरीन रचना..बधाई।
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है |सधन्यवाद
जवाब देंहटाएंआशा
सुन्दर और संदेशात्मक रचना...बधाई
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