जाने कितनी घटनाएं होती
गहराई जिनकी
सोचने को बाद्य करती
कोई हल् नजर नहीं आता
पर मन अस्थिर हो जाता
है मस्तिष्क बहुत छोटा सा
कितना बोझ उठाएगा
बहुत यदि सोचा समझा
बोझ तले दब जएगा |
कोई दिन ऐसा नहीं जाता
की सोच को विराम मिले
मस्तिष्क को आराम मिले
जैसे ही पेपर दिखता है
होती है इच्छा पढ़ने की
पर खून खराबा मारधाड़
इससे भरा पूरा अखबार
फूहड़ हास्य या रोना धोना
टी.वी. का भी यही हाल
क्या पढ़ें और क्या देखें
निर्णय बहुत कठिन होता
छोटा सा मस्तिष्क बिचारा
बोझ तले दबता जाता
मंहगाई और भ्रष्ट आचरण
चरम सीमा तक पहुच रहे
आवश्यक सुविधाओ से भी
जाने कितने दूर हुए
नंगे भूखे बच्चे देख
आँखें तो नम होती हैं
कैसे इनकी मदद करें
दुःख बांट नही सकते
कोई हल् निकाल नही सकते
बस सोचते ही रह जाते
बोझ मस्तिष्क पर और बढा लेते
झूठे वादों पर बनी सरकार
उन पर ही टिकी सरकार
नाम जनता का लेकर
लेती उधार विदेशों से
पर सही उपयोग नही होता
कुछ लोग उसे ले जाते हें
गरीब तो पहले ही से
और अधिक पीसते जाते
देख कर हालत उनकी
तरस तो बहुत आता हें
अपने को अक्षम पा
मन और उदास हो जाता है
प्रजातंत्र का यह हाल होगा
पहले कभी सोचा न था
बीता समय यदि लौट आये
तो कितना अच्छा होगा
खुशियाँ पाने के लिए
सभी को प्रयास करना होगा
संकुचित विचार छोड़
आगे को बढ़ना होगा
बोझ मस्तिष्क का
तभी हल्का हो पाएगा
तब वह बेचारा ना होगा |
आशा
गहराई जिनकी
सोचने को बाद्य करती
कोई हल् नजर नहीं आता
पर मन अस्थिर हो जाता
है मस्तिष्क बहुत छोटा सा
कितना बोझ उठाएगा
बहुत यदि सोचा समझा
बोझ तले दब जएगा |
कोई दिन ऐसा नहीं जाता
की सोच को विराम मिले
मस्तिष्क को आराम मिले
जैसे ही पेपर दिखता है
होती है इच्छा पढ़ने की
पर खून खराबा मारधाड़
इससे भरा पूरा अखबार
फूहड़ हास्य या रोना धोना
टी.वी. का भी यही हाल
क्या पढ़ें और क्या देखें
निर्णय बहुत कठिन होता
छोटा सा मस्तिष्क बिचारा
बोझ तले दबता जाता
मंहगाई और भ्रष्ट आचरण
चरम सीमा तक पहुच रहे
आवश्यक सुविधाओ से भी
जाने कितने दूर हुए
नंगे भूखे बच्चे देख
आँखें तो नम होती हैं
कैसे इनकी मदद करें
दुःख बांट नही सकते
कोई हल् निकाल नही सकते
बस सोचते ही रह जाते
बोझ मस्तिष्क पर और बढा लेते
झूठे वादों पर बनी सरकार
उन पर ही टिकी सरकार
नाम जनता का लेकर
लेती उधार विदेशों से
पर सही उपयोग नही होता
कुछ लोग उसे ले जाते हें
गरीब तो पहले ही से
और अधिक पीसते जाते
देख कर हालत उनकी
तरस तो बहुत आता हें
अपने को अक्षम पा
मन और उदास हो जाता है
प्रजातंत्र का यह हाल होगा
पहले कभी सोचा न था
बीता समय यदि लौट आये
तो कितना अच्छा होगा
खुशियाँ पाने के लिए
सभी को प्रयास करना होगा
संकुचित विचार छोड़
आगे को बढ़ना होगा
बोझ मस्तिष्क का
तभी हल्का हो पाएगा
तब वह बेचारा ना होगा |
आशा
है मस्तिष्क बहुत छोटा सा ,
जवाब देंहटाएंकितना बोझ उठाएगा ,
बहुत यदि सोचा समझा ,
खुद बोझ तले दब जएगा |
एक मुश्किल सवाल ....?
सभी को प्रयास करना होगा ,
संकुचित विचार छोड़ ,
आगे को बढ़ना होगा .
बोझ मस्तिष्क का,
तभी हल्का हो पाएगा |
बहुत सुन्दर और सही हल ......!!!
ek यथार्थ सी रचना है ,,,badhaai ....!
अखबार पढ़कर यही ख्याल आता है ...
जवाब देंहटाएंमस्तिष्की से दबाव हटाने के लिए अहा! जिंदगी पढ़ें ...
लेकिन यक्ष प्रश्न यही है कि यह बदलाव लाएगा कौन ? सत्ता जिसके पास होती है उसे बदलाव में कोई रूचि नहीं होती और इस कुर्सी का संक्रमण इतना प्रभावी है कि जो इस कुर्सी पर बैठ जाता है पल भर में उसकी मानसिकता, आदर्श विचारधारा और पर दुःख कातरता सब बदल जाती है और वह भी स्वार्थ सिद्धी की इस पंकिल धारा में बहने लगता है ! एक यथार्थवादी और सारगर्भित प्रस्तुति के लिये बधाई !
जवाब देंहटाएंएक यथार्थवादी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंयथार्थ बताती सार्थक रचना ..
जवाब देंहटाएंखुशियाँ पाने के लिए ,
जवाब देंहटाएंसभी को प्रयास करना होगा ,
संकुचित विचार छोड़ ,
आगे को बढ़ना होगा .
बोझ मस्तिष्क का,
तभी हल्का हो पाएगा |
--
सकारात्मक सोच के साथ लिखी सुन्दर रचना!
Mata ji,
जवाब देंहटाएंkavita bahut hi bhavpurn hai..!
aur mastik ka bojh to ek baar hi halka hota hai!
www.ravirajbhar.blogspot.com
साधना जी की टिप्पणी उपयुक्त है |बुद्धिजीवी तो सदैव ही समाज को
जवाब देंहटाएंकुछ करने के लिए प्रेरित करता रहा है |यही विचारधारा नई पीढ़ी को
कुछ नया करने की प्रेरणा देगी| जब परिस्थिति अत्यंत विषम होजाएगी ,तब एक दिन परिवर्तन अवश्य आएगा |
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंराजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।