08 जनवरी, 2011

कल्पना न थी

नया शहर, अनजान डगर ,
उस पर यह अँधेरी रात ,
कहाँ जायें, कैसे ढूँढें ,
एक छोटी सी छत ,
सर छुपाने के लिए ,
फुटपाथ पर कुछ लोग ,
और जलता अलाव ,
थे व्यस्त किसी बहस में ,
वहाँ पहुँच मैं ठिठक गया ,
खड़े क्यूँ हो रास्ता नापो ,
यहाँ तुम्हारा क्या काम ,
माँगी मदद रुकना चाहा ,
जबाव मिला नये अंदाज में ,
साहब है यह शहर ,
कोई किसी का नहीं यहाँ ,
सभी रहते व्यस्त अपने में ,
संवेदनायें मर चुकी हैं ,
भावनायें दफन हो गईं ,
यहाँ है बस मैं और मेरा पेट ,
कोई मकान नहीं देता ,
पहचान बताओ,
पहला वाक्य होता ,
होती अगर पहचान ,
वहीं क्यूँ नहीं जाते ,
यूँही नहीं भटकते ,
है सुबह होने में,
कुछ समय शेष ,
कुछ समय तो ,
कट ही सकता है ,
यही सोच रुक गया वहाँ ,
और सोच में डूब गया ,
तंद्रा भंग हुई ,
एक दबंग आवाज से ,
है क्या यह,
तेरे बाप का घर ,
पैसे निकाल ,
या चलता बन ,
यहाँ हर चीज बिकाऊ है ,
निजी हो या सरकारी ,
है यह जागीर मेरी ,
हफ्ता दे या फूट यहाँ से ,
कितना कड़वा अनुभव था ,
फुटपाथ है जागीर किसी की ,
इसकी तो कल्पना न थी ,
डाला हाथ जेब में ,
दिखाई हरे नोट की हरियाली ,
पत्थर से मोम हुआ वह ,
किराये के मकान
दिखाने तक की
बात कर डाली |


आशा

11 टिप्‍पणियां:

  1. एक कड़वा सच से रू-ब-रू कराती रचना बेहद मार्मिक है। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
    फ़ुरसत में आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री के साथ

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  2. कटु यथार्थ की बखिया उधेड़ती एक प्रभावशाली प्रस्तुति ! वाकई शहरों में बाहर से आये परदेशियों के लिये जीवन कितना दुष्कर हो गया है इसका सुन्दर चित्र खींचा है आपने अपनी रचना के माध्यम से ! एक अच्छी और सामयिक प्रस्तुति ! बधाई एवं शुभकामनायें !

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  3. आदरणीय आशा माँ
    नमस्कार !
    वाह...क्या बात कह दी !!!
    ......कड़वा सच

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  4. शहरी फुटपाथों की सच्चाई उजागर करती सुन्दर रचना| धन्यवाद|

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  5. सच्चाई को दर्शाती हुई परिपक्व, सुन्दर कविता।
    शुभकामनायें

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  6. आदरणीय आशा जी...
    कड़्वे सच को इतना सटीक वर्णन ,मन को छू गया
    बधाई...

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  7. यथार्थ का जीवन्त चित्रण कर दिया…………बेहतरीन्।

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  8. आप इसी प्रकार स्नेह से भरपूर हो प्रोत्साहन देते रहें |आपलोगों का यही स्नेह लिखने कि प्रेरणा देता है |आभार
    आशा

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