-धधकती आग ढहते मकान
कम्पित होती पृथ्वी
कर जाती विचलित
मचता हाहाकार
जल मग्न गाँव डूबते धरबार
हिला जाते सारा मनोबल
सत्य असत्य की खींचातानी
लगने लगती बेमानी
करती भ्रमित झझकोरती
क्षणभंगुर जीवन की व्यथा
छल छिद्र में लिप्त खोजता अस्तित्व
हुतात्मा सा जीता इंसान
कई विचार मन में उठते
आसपास जालक बुनते
मन में होती उथलपुथल
हूँ संवेदनशील जो
देखती
उसी में खोजती रह जाती हल
विचारों की श्रंखला रुकती नहीं
कहीं विराम नहीं लगता
हैं सब नश्वर फिर भी
मन विचलित होता जाता
जाने क्यूं व्यथित होता |
आशा
हिन्दीदिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!
जवाब देंहटाएंआपका इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (15-09-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
बहुत सुन्दर..हिन्दीदिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!
जवाब देंहटाएंबेहद खुबसूरत रचना, हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ.....
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंबहुत ही बेहतरीन रचना...
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना ! बहुत ही खूबसूरत शब्द चित्र खींचा है ! बधाई !
जवाब देंहटाएंफिर भी मन विचलित और व्योमोहित होता है !
जवाब देंहटाएंयही तो कृतिका की कृत्या है!
चिंतन को प्रेरित करती रचना !
http://dhirendrakasthana.blogspot.in/