सोनाक्षी चंचल मना ,पाया रूप अनूप |
कानन वन में खोजती ,वर
अपने अनुरूप ||
आलते से पैर सजे
,पायल की झंकार |
रख पाते न सुध अपनी ,पा
कर अपना प्यार ||
मृगनयनी मृदुबयनी ,जब
करती मनुहार |
स्वर्णिम आभा फैलती,ऐसा
है यह प्यार ||
पुष्प भरी डाली
झुकती ,जाने कितनी बार |
मुखडा छूना चाहती
,करने को अभिसार ||
यहाँ वहाँ वह घूमती ,खुद को जाती भूल |
दामन खुशियों से भरा
,वर पा कर अनुकूल ||
यहाँ वहाँ वह घूमती ,खुद को जाती भूल |
जवाब देंहटाएंदामन खुशियों से भरा ,वर पा कर अनुकूल ||खुबसूरत अभिवयक्ति....
मृगनयनी मृदुबयनी, जब करती मनुहार
जवाब देंहटाएंस्वर्णिम आभा फैलती.....
सपने होते साकार
..............................................
आनंद आता है आपको पढ़कर
मृगनयनी मृदुबयनी ,जब करती मनुहार |
जवाब देंहटाएंस्वर्णिम आभा फैलती,ऐसा है यह प्यार ||...बहुत सुन्दर...आशा जी
तिसुन्दर ,मन के भावों को मोती कि तरह पिरोया है आपने
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर रचना..
जवाब देंहटाएं:-)
बहुत प्यारे दोहे ! हर दोहा श्रांगारिकता के अभिनव रंग से सजा हुआ ! आनंद आ गया पढ़ कर ! बहुत खूब ! नवरात्र की ढेर सारी शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंसुन्दर..अति सुन्दर आशा जी...
जवाब देंहटाएंवाकई आनंदित हूँ....
सादर
अनु