प्यारा था पहले कितना ,लोक लुभावन वेश ||
साथ समय के बदल गया ,रूप रंग वह तेज |
शरीर ढांचा रह गया ,चेहरा हुआ निस्तेज ||
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सह रही झूमाझटकी ,व अपशब्दों के वार |
कटुता मन में विष भरे ,कोई नहीं उदार ||
नाते रिश्ते भूल चली ,मूढ़ मती सी होय |
भूल गयी अपनी क्षमता ,रही अपाहिज होय ||
चुटकी भर सिन्दूर का ,मर्म न जाने कोय |
चिंता से तन मन जला बचा न पाया कोय ||
आसमान तक धुआ उठा ,रोक न पाया कोय |
ऊंची लपटें आग की ,देखत ही भय होय ||
भीड़ जो पहले उमढ़ी,कमतर होती जाए |
कौन पड़े चक्कर में ,निश्प्रह होती जाए ||
सास ससुर देवर बढ़े ,चढे पुलिस की बेन |
फूट फूट कर रो रहे बच्चे बड़े बेचैन ||
हुआ भयंकर हादसा ,कर जाता बेचैन |
अमानवीयता इतनी ,क्या समाज की देन ||
आशा
आशा
खुबसूरत अभिवयक्ति.....
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना..आभार..
जवाब देंहटाएंवाह ,,, बहुत उम्दा,लाजबाब दोहे ...
जवाब देंहटाएंrecent post: रूप संवारा नहीं,,,
आपकी इस उत्कृष्ट पोस्ट की चर्चा बुधवार (12-12-12) के चर्चा मंच पर भी है | जरूर पधारें |
जवाब देंहटाएंसूचनार्थ |
भयावह स्थितियों का चित्रण करती व समाज में व्याप्त कड़वी सच्चाई को बयान करती सशक्त रचना ! बहुत खूब !
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा आशा जी ,आभार
जवाब देंहटाएंमेरी नई पोस्ट "गजल "
खूबसूरत दोहे, वाह !!!!!!!!!!
जवाब देंहटाएंsashakt lekhan
जवाब देंहटाएंसुंदर अभिव्यक्ति ।
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