क्यूं सुनाऊँ मैं तुम्हें
उसकी व्यथा कथा
तुमने कभी उससे
प्यार किया ही नहीं |
कुछ अंश ममता का
उससे बांटा होता
नजदीकियां बढ़तीं
यूं अलगाव न होता |
ऐसे ही नहीं वह
सबसे दूर हो गयी
प्यार की छाँव से
महरूम हो गई |
ममता तुम्हारी मात्र
एक छलावा थी
काश तुमने उसे
नया मोड़ दिया होता |
इस तरह किरच किरच हो
वह शीशे सी
ना टूटती
बिखरती
यदि तुमने उसे छला न होता |
आई थी
रुपहली धुप सी
दस्तक भी दी थी
तुम्हारे दिल के दरवाजे पर
तब सुनी अनसुनी की |
देखा न एक क्षण को उसे
स्नेह भरी निगाह से
हो कर
उदास बेचैनी लिए
वह ढली सांझ सी |
इन बातों में
अब क्या रखा है
यह तो कल की
बात हो गयी |
प्यार की चाह में भटकी
गुमराह हो गयी
फूल की चाह में
काँटों से मुलाक़ात हो गयी |
आशा
प्यार की चाह में भटकी
जवाब देंहटाएंगुमराह हो गयी
फूल की चाह में
काँटों से मुलाक़ात हो गयी |
बहुत सुंदर भावपूर्ण पंक्तियाँ
बहुत बहुत धन्यवाद
हटाएंप्यार की चाह में भटकी
जवाब देंहटाएंगुमराह हो गयी
फूल की चाह में
काँटों से मुलाक़ात हो गयी |
बहुत सुंदर*******
धन्यवाद टिप्पणी के लिए |
हटाएंप्यार की चाह में भटकी
जवाब देंहटाएंगुमराह हो गयी..katu satya .....
धन्यवाद निशा जी |
हटाएंप्यार की चाह में भटकी
जवाब देंहटाएंगुमराह हो गयी
फूल की चाह में
काँटों से मुलाक़ात हो गयी |
बहुत बढ़िया ! बहुत सुंदर रचना है ! ज़िंदगी के बहुत करीब !
कविता पसंद आई अच्छा लगा |धन्यवाद
हटाएंवाह बहुत खूबसूरत भाव
जवाब देंहटाएंअंजू जी धन्यवाद टिप्पणी हेतु |
हटाएंbahut sundar...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद टिप्पणी के लिए
हटाएंबहुत ख़ूब !
जवाब देंहटाएंटिप्पणी हेतु आभार प्रतिभा जी
हटाएंबहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंधन्यवाद उपासना जी
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