16 नवंबर, 2013

जन्नत यहीं है


बढ़ती ठण्ड छाई धुंध
कुछ नजर नहीं आता
इंतज़ार धूप का होता
लो छट गया कोहरा
खिली सुनहरी  धूप
 झील में शिकारे
जल में अक्स उनके
साथ साथ चलते
 मोल भाव करते
तोहफे खरीदते
सुकून का अहसास लिए
प्रसन्न वदन  घूमते
आनंद नौका बिहार का लेते
मृदुभाषी सरल चित्त
तत्पर सहायता के लिए
जातपात से दूर यहाँ
इंसानियत से भरपूर
जमीन से जुड़े लोग
सोचने को बाध्य करते
जैसा सौन्दर्य प्रकृति का
बर्फीली पहाड़ी चोटियाँ का
वैसा सा ही रूप दीखता
यहाँ के रहवासियों का
झील शिकारे हरियाली
मन कहता रुको ठहरो
शायद जन्नत यहीं है
यहीं है ,यहीं है |

18 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर , आपके अनमोल शब्दों ने चार चाँद लगा दिए , बहुत बढ़िया व मनमोहक रचना , धन्यवाद
    नया प्रकाशन --: प्रश्न ? उत्तर -- भाग - ६
    " जै श्री हरि: "

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज रविवार (17-11-2013) को "लख बधाईयाँ" (चर्चा मंचःअंक-1432) पर भी है!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    गुरू नानक जयन्ती, कार्तिक पूर्णिमा (गंगास्नान) की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. प्रकृति कि खूबसूरती जहाँ है ,जन्नत वहीँ है ,बहुत सुन्दर !
    नई पोस्ट मन्दिर या विकास ?
    नई पोस्ट लोकतंत्र -स्तम्भ

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  4. बिलकुल सही कहा है आपने ..जन्नत तो यहीं है ..वाकई जमीन से जुडें हैं यहाँ लोग ..सादर

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  5. वाकई जन्नत यहीं है और भाग्यशाली हैं वे लोग जो इस जन्नत का दीदार कर पाते हैं ! सजीव वर्णन के साथ मनभावन प्रस्तुति !

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  6. सही है जब प्रकृति के साथ वहाँ के निवासियों के चित्त की खूबसूरती का मेल हो जाता है, तो लगता है स्वर्ग जमीं पर उतर आया हो .... सुन्दर अभिव्यक्ति

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