स्वप्नों की तस्वीर कैसे उतारूं
हैं इतने चंचल
स्थिर रहते ही नहीं
ना ही आसान
कुछ पलों के लिए
उन्हें रोक पाना
कोइ नया सुन्दर सा
पोज दिलवाना
वे बारम्बार पहलू बदलते
कभी पूरी की पूरी
स्थिति ही बदल देते
कोइ वर्जना उन्हें
प्रभावित नहीं कर पाती
वे हैं घुमंतू
बस आते जाते रहते हैं
महफिल में बातें स्वप्नों की
करना तो अच्छा लगता है
पर बिना प्रमाण वे
सब सतही लगते हैं
चंचल मन के साथ वे
रह नहीं पाते
यहाँ वहां भटकते हैं
कभी रंगीन कभी बेरंग लगते हैं |
जवां दिल की प्यार में दीखते रंग-बेरंग की बढ़िया प्रस्तुति ...
जवाब देंहटाएंटिप्पणी हेतु धन्यवाद कविता जी |
हटाएंकोइ वर्जना उन्हें
जवाब देंहटाएंप्रभावित नहीं कर पाती
वे हैं घुमंतू
बस आते जाते रहते हैं.... वाह ! बहुत खूबसूरत।
टिप्पणी हेतु धन्यवाद |
हटाएंआशा
जवाब देंहटाएंकल 28/11/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
धन्यवाद!
सुन्दर रचना।।
जवाब देंहटाएंनई चिट्ठियाँ : ओम जय जगदीश हरे…… के रचयिता थे पंडित श्रद्धा राम फिल्लौरी
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मनमौजी सपनों की चंचल फितरत को बड़ी कुशलता से शब्दों में बाँधा है ! बहुत सुंदर रचना !
जवाब देंहटाएंस्वप्नों के अनेक रूपों को कहाँ समझ पाते हैं..बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति....
जवाब देंहटाएंसूचना हेतु आभार |
जवाब देंहटाएंआशा