महकती चहकती
निशा सुन्दरी श्रंगार करती 
सध्य खिलते सौरभ बिखेरते 
डाली पर सजे पुष्पों से |
भीनी खुशबू जब आती 
उसी और खींच ले जाती 
पवन से हिलती डालियाँ 
श्वेत चादर सी बिछ जाती  
प्रातः वृक्ष के नीचे |
सुनहरी धुप के सान्निध्य से 
कुम्हलाते पर दुखी न होते 
अपने सुख दुःख भूल 
जीवन जीते मस्ती से |
उनकी जीने की कला 
तनिक भी यदि सीखी होती 
जितनी 
साँसे  मिलतीं 
खुशी खुशी जी लेते 
उनका भरपूर उपयोग करते |
आशा 

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन जलियाँवाला बाग़ हत्याकाण्ड की ९५ वीं बरसी - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंसूचना हेतु धन्यवाद सर |
हटाएंसुंदर !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर |
हटाएंजीवन जीने की की कला प्रकृति के संदेशों से सीखी जा सकती है.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद प्रतिभा जी |
हटाएंआशा
बहुत सुंदर प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंहरसिंगार के कोमल सुमनों सी सुरभित सुंदर रचना ! बहुत बढ़िया !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर...कोमल सी कविता!
जवाब देंहटाएंटिप्पणी हेतु धन्यवाद सर |
हटाएंसुंदर स्पष्ट भाव..... बहुत उम्दा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद संजय |
हटाएंबहुत सुन्दर कविता..
जवाब देंहटाएंटिप्पणी हेतु धन्यवाद सर |
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