एक अकेला बियावान में
खोज रहा 
पल दो पल की छाँव
है थका हुआ उत्साह रहित 
 मंजिल से अनजान 
वेग  वायु का  झेल रहा 
 संतुलन कभी
खोता 
फिर सम्हलता 
है पतझड़ का आलम ऐसा 
खड़े ठूंठ पर्ण
विहीन 
धरा पर पसरे  पीत पर्ण
सूखे साखे जल
स्त्रोत  
सब ने नकार दिया  
दो बूंद जल तक न
मिला 
कंठ सूखने लगा 
सांस रुकती सी
लगती 
क्या करे वह श्री विहीन 
जूझ रहा है खुद से 
आस पास के हालात
से 
छाँव की तलाश में
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आशा 
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