16 मई, 2015

तृष्णा


सुख दुःख का है खेल जिन्दगी
धूप छाँव का मेल जिन्दगी
दुःख से दूरी सभी चाहते
सुख के सपनों में खो जाते |
नशा सुख का मद में बदलता
अहंकार भी बढ़ने लगता
मदहोशी जब बढ़ती जाती
लिप्त उसी में हो  रहते |
सोच संकुचित होने लगता
प्रत्येक वस्तु का मोल लगाते
गरूर जब  पैसे का  होता
रंग रलियों में होते  लिप्त  |

आधुनिकता की दौड़ में
कैसे पीछे रह जाते
छीन झपट धन संचय करते
पर आत्मसंतोष नहीं पाते |
और अधिक पाने की चाह में
झूठ  की दुकान लगाते
उससे जब मन भर जाता
मनमानी करने लगते 
बेईमानी पर उतर आते |
आशा





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