शमा जलती
 महफिलें सजतीं
 पर न जाने क्या
 मन में चुभता 
उदासी का मुखौटा 
उतरना न चाहता 
खुशी से परहेज रहता 
चांदनी की चूनर ओढ़ 
 स्वप्न  कभी सजाए थे 
तारों भरी रात में 
जो लम्हें बिताए थे 
निगाहों में ऐसे बसे 
आज भी सता रहे हैं 
उत्पात मचा रहे हैं 
पेड़ों से छन छन कर 
आती चांदनी ने
 राह खोज ही ली थी  
चाँद की  अटखेलियाँ
 जल की चंचल लहरों से 
आज भी वही हैं 
कोई भी बदलाव नहीं 
 पर परिवर्तन है  उसमें 
सोच बदल गया है 
ठहराव आ गया  है  
घूमना शबनमी रात में 
 बहुत सुकून देता था तब 
पर अब नहीं 
प्यार भरी अदाओं से 
शरारती निगाहों से
हाथों से मुंह छिपाना 
बांह  छुड़ा दूर जाना
लुका छिपी तब की 
आज भी न भूल पाती 
खुद को अधूरा पाती 
किसी की भी नज्म हो 
खोई खोई रहती है 
दाद भी न दे पाती 
उदासी बढ़ती जाती |
आशा 
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