बाहर बैठी देख रही
रंगों की बहार हरीतिमा की
खोने लगी अपने बचपन में
जब आँगन में झूला डलवाया
पर चढ़ न सकी तब रो रो कर
घर सर पर उठाया था
मां ने बहलाया और बाहर आ
एक कबूतर दिखाया था
फिर नई जिद की थी उसने
आसमान में उड़ने की
कबूतर की तरह पंख फैलाने की
छोटे छोटे दो पंख
मां ने बालों में लगाए थे
और उड़ने की सलाह दी थी
आज फिर से एक कबूतर
उसके पास आ कर बैठा
गुटरगूं गुटरगूं कर रहा
आज भी वह चाहती है
कपोत की इस हारीतिमा को
देखना महसूस करना
एक टक निहार रही
वही नीलाम्बर
अपना मंतव्य पूर्ण करने को |
आशा
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