की सच्चे मन से दोस्ती
प्रसन्न रहा करते थे
दिन रात उसी के गीत गाते
बढ़ चढ़ कर उन्हेंदोहराते
पर पहचान नहीं पाए
पीछे से जिसने वार किया
दोस्ती पर कीचड़ उछला
शर्म से सर झुक गया
शब्दों के प्रहारों ने
कोमल मन छलनी किया
अब तो इस नाम से ही
दहशत होने लगती है
नफ़रत बढ़ने लगती है
फिर से विचार मन में आता
बेमुरब्बत दोस्त से तो
बिना दोस्त ही रहना बेहतर
दोस्ती पर तो दाग न लगता
मन में मलाल न आता |
आशा
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