वह झुकी-झुकी पलकों से
कनखियों से देखती है
बारम्बार तुम्हें !
हैं जानी पहचानी राहें
पर भय हृदय में रहता है
कहीं राह से दूरी न हो जाए !
कोई साथ नहीं देता बुरे समय में
जब भी नज़र भर देखती है
यही दुविधा रहती है
कहीं राह न भूल जाए !
पर ऐसा नहीं होता
भ्रम मात्र होता है !
भ्रमित मन भयभीत बना रहता
जिससे उबरना है कठिन
जब कोई नैनों की भाषा न पढ़ पाए
अर्थ का अनर्थ हो जाता !
इससे कैसे बच पायें
है कठिन परीक्षा की घड़ी
कहीं असफल न हो जाए
जब सफलता कदम चूमे
मन बाग़-बाग़ हो जाए
जब विपरीत परीक्षाफल आये
वह नतमस्तक हो जाए
निगाहें न मिला पाए !
आशा सक्सेना
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