काली अंधेरी रात में
डाली अपनी नौका मैंने
इस भवसागर में
पहले वायु ने बरजा
पर एक न मानी
फिर गति उसकी
बढ़ने लगी मनमानी
जल यात्रा लगी बड़ी सुहानी
नौका ने गति पकड़ी
लहरों से स्पर्द्धा की ठानी
लहरों से स्पर्द्धा की ठानी
साथ हवा के
दूर बहुत निकल आए
वायु ने अब रुख बदला
हुआ सीमित चक्रवात
में
नाव ने अनुसरण किया
घूमने लगी भवर में
आसपास कोई न था
प्रभु तेरा ही सहारा था
तेरा नाम लब पर
आया
भूली सारी मन की
माया
तुमने सुनी
अर्जी मेरी
गति नाव की हुई
धीमीं
तब भी झूल रही
जीवन मृत्यु के बीच
जीवन के लिए संघर्षरत
न जाने किनारा कब
मिलेगा |
आशा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
Your reply here: