प्रसन्न थी अपना
घर संसार बना कर
व्यस्तता ऎसी बढ़ी कि
खुद के वजूद को ही भूली
वह यहाँ आ कर ऐसी उलझी
समय ही न मिला
खुद पर सोचने का
जब भी सोचना प्रारम्भ किया
मन में हुक सी उठी
वह क्या थी ?क्या हो गई ?
क्या बनाना चाहती थी ?
क्या से क्या होकर रह गई ?
अब तो वह है निरीह प्राणी
सब के इशारों पर
भौरे सी नाचती है
रह गई है उनके हाथ की
कठपुतली हो कर
ना सोच पाई
इस से अधिक कुछ
कहाँ खो गई
आत्मा कि आवाज उसकी
यूँ तो याद नहीं आती पुरानी बातें
जब आती हैं
मन को ब्यथित कर जाती हैं
उसका अस्तित्व
अतीत में गुम हो गया है
उसे खोजती है या
अस्तित्व उसे खोजता है
कौन किसे खोजता है
है बड़ी पहेली
जिसमें उलझ कर रह गई है |
आशा
साधुवाद
जवाब देंहटाएंसुन्दर सृजन
Thanks for the comment
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