आधुनिकता के वेश में 
जो पहुँँची चरम पर 
बहुत बदलाव आया है 
छोटे घरौंदों में रहने वाले 
नहीं होते अधिक कद्दावर
और अधिक रसूख वाले 
पर होते विशाल हृदय वाले
सरल सहज और
स्नेह से भरे 
जब भी मिलते
आत्मीयता से मिलते 
घर जैसा घर लगता 
कहीं भी दिखावा न होता 
सुदामा के चावल
मिल बाँँट कर खाते 
पर शहरीकरण के जोश में
न रह गया है होश अब   
सब रिश्ते बदल गए  
सभी  मुँँह पर मुखौटा 
लगा कर घूूमते हैं 
अन्दर कुछ 
पर बाहर कुछ  
वह सम्मान
मेहमान का 
तन मन धन
से होता था  
तिरोहित सा हो गया 
अब सोच बदल गया है 
कहाँ आ गई मुसीबत 
जाने कब जाना चाहेगी 
यह भी भूल जाते हैं
कोई अपना कीमती
समय निकाल कर
मिलने आया है 
सब यहीं बह जाता  
मिट्टी के घड़े के 
रिसते पानी की तरह 
रह जाता है पानी
बिना ठंडा हुए 
न तो मिठास
न प्राकृतिक स्वाद 
सभी बातें सतही 
बड़े से बैनर के लिए
नारों में समा गई हैं
कद्दावर लोगों से 
अच्छे करोड़ दर्जे
सामान्य जन
जो हैं बहुत दूर 
आधुनिकता से |
वसुधैव कुटुम्बकम की
अवधारणा रह गई 
केवल कल्पना हो कर 
सहेजी गई किताबों में |
आशा  |

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