
  मुस्कान बहुत मंहगी पड़ती 
जब दिल से  दुआ न  निकलती
ना शब्दों का आदान
प्रदान 
केवल अधरों पर
मुस्कान |
वह भी केवल दिखावे
की 
जैसी दिखाई देती वैसी है नहीं 
मन से निकली आवाज नहीं
ना ही आत्मीयता  का प्रभाव | 
 अधरों में सहमी सिमटी 
रहती एक कैदी सी
रहती एक कैदी सी
 पहरा रहता आठों प्रहर 
 कितनी लगती  लाचार बेबस |
सब की दृष्टि अलग
होती 
भोले बचपन की मुस्कान
है कितनी निश्छल
निरापद  
मन मोहक छवि बालक की
मन झांकता उसमें से |
 व्यंगबाण पर आती मुस्कान  
मन का कपट झलकाती 
किसी की गलतफहमी पर 
या किसी की नादानी
पर 
तभी बहुत मंहगी पड़ती
|
यह न जान पाता  कोई 
मुस्कान तो मुस्कान
है 
अपने अंतर की हलचल का 
सत्य ही बयान करती |
आशा 
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
Your reply here: