रोज रात रहता
पहरा स्वप्नों का
पहरा स्वप्नों का
उनमें भी वर्चस्व तुम्हारा
तुमसे ही जाना है
तुमसे ही तुम्हें चुराया है
हमने अपने ख्वावों से
चुराया है तुम्हें
जब भी स्वप्न आते हैं
चाहे जो भी हो उनमें
मुख्य पात्र तुम्ही होते हो
तुम्हारे बिना कोई
स्वप्न पूरा न होता
जैसे ही आँखें खुल जाती हैं
तुम न जाने कहाँ हो जाते तिरोहित
मन को बहुत संताप होता
जब मुख्य पात्र ही कहीं
गुम हो जाता है
प्रमुख पात्र के खो जाने से
उदासी हावी हो जाती
फिर नींद नहीं आती
तारे गिन गिन कटती रातें
तुम क्या जानों
है प्रमुख पात्र की भूमिका
क्या ?
सारे सुख रस विहीन हो जाते
जब तक तुम बापिस न आते
कोई तुम्हारी जगह न ले पाता
स्वप्न अधूरा ही रह जाता |
आशा
bahut khoob
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी |
जवाब देंहटाएंसूचना हेतु आभार सर |आपको भी शुभ कामनाएं सपरिवार |
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ,सादर नमस्कार आप को
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंटिप्पणी हेतु धन्यवाद कामिनी जी |
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 13/04/2019 की बुलेटिन, " १०० वीं बरसी पर जलियाँवाला बाग़ कांड के शहीदों को नमन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंसूचनाहेतु आभार सर |
अधूरे स्वप्न का एहसास भी अलग होता है
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंटिप्पणी के लिए धन्यवाद वर्मा जी |
वाह ! क्या बात है ! बड़ी प्यारी सी रूमानी रचना ! बहुत सुन्दर !
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