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वह चित्र क्या
जो सोचने को बाध्य न करे
इसमें है ऐसा क्या विशेष
जो शब्दों में बांधा न जा सके
सोच तुरन्त मन पर छा जाए
शब्दों में सिमट जाए
तभी लेखन में आनंद आए
डाल से बिछुड़े पत्ते पर
शवनम का मोती हो
जिस में प्रकृति की छाया
सिमटी हो सूक्ष्म रूप में
तब कैसे लेखन से हों महरूम
स्वतः ही कलम चलने लगती है
एक नई छबि मन में उभरने लगती है |
आशा
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (08-06-2019) को "सांस लेते हुए मुर्दे" (चर्चा अंक- 3360) (चर्चा अंक-3290) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुप्रभात
हटाएंसूचना हेतु धन्यवाद सर |
नमस्कार !
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "साप्ताहिक मुखरित मौन में" शनिवार 8 जून 2019 को साझा की गई है......... "साप्ताहिक मुखरित मौन" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
धन्यवाद टिप्पणी के लिए |
हटाएंवाह ! खूब चली आपकी लेखनी ! सुन्दर चित्र सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
जवाब देंहटाएंसुन्दर चित्र लेखन
जवाब देंहटाएंधन्यवाद उचाईयां .ब्लॉग स्पॉट. इन
हटाएंधन्यवाद अनुराधा जी टिप्पणी के लिए |
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी टिप्पणी के लिए |
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