कोई चाहत नहीं है अब तो
चाहा नहीं कुछ किसी से  
जी जी के मरने से है बेहतर
वे  दोचार दिन  खुशहाल जिन्दगी के |
उन लम्हों  में खो जाने के लिए 
है जिन्दगी बहुत छोटी सी
किस पल  सिमट जाए नहीं  जानती |
जी भर कर पल दो पल खुश होंने के लिए 
सपनों  से लिपट कर सोने के लिए 
उन पलों में   मन की बातें करने के लिए 
छोटी  छोटी बातों   के निदान के लिए |
दो चार दिन हैं बहुत खुशहाल जिन्दगी के
पलक झपकते ही बीत जाएंगे 
रह जाएगा यादों का जखीरा रात ढलते ढलते 
हैं दो चार दिन खुशहाल  जिन्दगी के |
                                                                                आशा 
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 20 अक्टूबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंसूचना हेतु आभार सर |
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (22-10-2019) को " सभ्यता के प्रतीक मिट्टी के दीप" (चर्चा अंक- 3496) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह ! सुन्दर रचना ! छोटी सी ज़िन्दगी को भरपूर जीने में ही सार्थकता है ! सुन्दर विचार !
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