हो आफताव या किसी का नूर हो
या जन्नत की कोई अजनबी हूर हो
तुम्हें देख कर जो निखार आता है चहरे पर
उससे मुंह फेर मुकरा नहीं जा
सकता
तुम तो सदाबहार गुलाब का पुष्प हो |
तुमसे अनुपम कौन है कोई समानता नहीं तुमसे
किसकी है हिमाकत जो निगाहें उठाकर देखे तुम्हें
हो तुम गुणों की टोकरी कोई ईर्ष्या क्यूँ कर करे
है आवश्यकता उसे तुमसे शिक्षा
लेने की
न कि तुम्हें उलहाना देने की|
हो तुम अनुपम कृति इस धरा पर जिस घर की
हो गया निहाल जिसकी हो अनुकृति तुम ही
ईश्वर ने मुक्त हस्त से दिया
उसे तुमसा तोहफा
उसने भी सहेजा तुम्हें जी भरकर पूरे
मनोयोग से |
आशा
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 24 अगस्त 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसुन्दर और सारगर्भित रचना।
जवाब देंहटाएंवाह ! बहुत ही सुन्दर रचना ! बहुत खूब !
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