07 दिसंबर, 2020

समाज देख रहा


                                                           समाज देख रहा मूँद नयन सब

 जो हो रहा जैसा भी हो रहा

बिना सुने और अनुभव करे

निर्णय तक भी पहुँच रहा |

उसकी लाठी है बेआवाज

जब चलेगी हिला कर रख देगी

दहला देगी दिल को

और सारे परिवेश को

केवल बातों के सिवाय

होगा कोई न निकाल |

और अधिक उलझनों की

लग जाएगी दुकान

कैसे इनसे छुटकारा मिलेगा  

कभी सोचना समय निकाल |

शायद कोई हल खोज पाओ

मुझे भी निदान बता देना

समाज रूपी नाग के दंश से

कैसे आजादी पाऊँ मुझे भी  जता देना |

जब होगा तालमेल समाज से   

तभी शान्ति मन को होगी

जीवन की समस्याएँ तो

अनवरत  चलती रहेंगी |

वे आई हैं  जन्म  के साथ

और जाएंगी मृत्यु के साथ

अब और परेशानी नहीं चाहिए

जितनी है वही है पर्याप्त |

आशा

11 टिप्‍पणियां:

  1. सत्य है ! जितनी परेशानियां भोग लीं पत्याप्त हैं ! लेकिन इन की संख्या या तीव्रता पर अपना वश कहाँ बस स्वीकार भाव से इनको झेलना ही हमारी नियति है ! सुन्दर रचना !

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  2. सादर नमस्कार ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (8-12-20) को "संयुक्त परिवार" (चर्चा अंक- 3909) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    --
    कामिनी सिन्हा

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    उत्तर
    1. सुप्रभात
      मेरी रचना शामिल करने की सूचना के लिए आभार आपका कामिनी जी |

      हटाएं
  3. उत्तर
    1. सुप्रभात
      धन्यवाद अनुराधा जी टिप्पणी के लिए |

      हटाएं
  4. बहुत सुंदर विचारणीय सृजन।
    सादर।

    जवाब देंहटाएं

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