खिला गुलाब
चल कदमी करता
सोचता रहा
स्वयं के
जीवन की
कहानी पर
आज खिला सुमन
आया यौवन
कभी कली रहा था
पत्तों से ढकी
डालियों के कक्ष से
झाँक रहा था
कली से झांकती
खिली पंखुड़ी
लाल सुर्ख गुलाब
एकल नहीं
कंटक रहते पास
रक्षा के लिए
बचाते अनजानों से
तितलियों की
भाती हैउसे
प्यार प्रेम उनका
स्वीकार उसे
वायु बेग सहना
मन से स्वीकार है
विरोध नहीं
करने की क्षमता
अब न रही
यौवन की समाप्ति
बढ़ती उम्र
जीवन हुआ सफल
स्वयम अर्पण
करने का निर्णय
आज का पुष्प
कभी हारूंगा नहीं |
आशा
धन्वाद टिप्पणी के लिए ओंकार जी |
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंधन्यवाद आलोक जी टिप्पणी के लिए |
बहुत सुन्दर् और सशक्त रचना।
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर टिप्पणी के लिए |
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (6-4-21) को "हार भी जरूरी है"(चर्चा अंक-4028) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
कामिनी सिन्हा
Thanks for the information
जवाब देंहटाएंकभी न हारने की मानसिकता ही पुष्प की शक्ति होती है । हमें उससे सीखना चाहिए । आपके नाम के अनुरूप ही आशा से परिपूर्ण है यह रचना । आभार एवं अभिनंदन ।
जवाब देंहटाएंThanks for the comments
हटाएंबहुत ही सुंदर रचना, बधाई हो
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंपुष्प सी ही मानसिकता सबकी हो जाए तो जग से अवसाद और विषाद सदा के लिए तिरोहित हो जाए ! बहुत प्यारी रचना !
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