कठिन ऊबड़
खाबड़ है जीवन की डगर
काँटों से भरी है हुआ चलना दूभर
पैरों में चुभे कंटक
इतने गहरे कि
निकालना सरल नहीं कष्ट इतने कि सहे नहीं जाते |
होती रूह कम्पित कंटक निकालने में
आँखें भर भर आतीं धूमिल होतीं कष्ट सहने में
दुखित होता पर
फिर लगता यही लिखा है प्रारब्ध में
जीवन है
एक छलावा इससे दूर नहीं हो सकते
जितनी जल्दी हो अपने
कर्तव्य पूरे करना चाहते |
पर उनकी पूरी सूची समाप्त नहीं होती
पहली पूरी होते न
होते दूसरी दिखाई दे जाती है
फिर भी मुंह मोड़ना नहीं चाहता अंतस कर्तव्यों से
सोचती हूँ क्या अपने अधिकारों को पा लिया मैंने |
सोचते हुए अधर में लटकता सोच अधूरा ही रहता
न कर्तव्यों का अंत होता न अधिकारों की मांग का
एक कंटक निकल कर कुछ सुकून तो देता
पर इतने घाव सिमटे
हैं दिल में कि
मुक्ति ही नहीं मिलती जाने कब ठीक होंगे
सामान्य सा जीवन हो
पाएगा |
अब छोड़ दिया उलझनों को
परमपिता परमेश्वर के हाथों में
खुद को भी समेट लिया जीवन के प्रपंचों से दूर
भक्ति का मार्ग चुना है निर्भय कंटकों से दूर |
आशा
सुन्दर
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंधन्यवाद आलोक जी टिप्पणी के लिए |
नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार (15-05-2021 ) को 'मंजिल सभी को है चलने से मिलती' (चर्चा अंक-4068) पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंमेरी रचना की सूचना के लिए आभार रविन्द्र जी |
बहुत बढ़िया।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आपका बहुत टिप्पणीव के लिए
हटाएंसुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आपका बहुत टिप्पणीव के लिए
हटाएंबहुत सुंदर, अच्छी प्रस्तुति, जय श्री राधे
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना
जवाब देंहटाएंThanks for the comment sir
जवाब देंहटाएंवाह ! जिसने परम पिता के हाथों खुद को सौंप दिया उसको तो मोक्ष मिलना ही है ! बहुत सुन्दर रचना जीजी !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |