खुले न बंधन
तुम्हारे हाथों के
देख रहा हूँ  मैं 
बेड़ियों से भी दूरी
नहीं है 
समझ रहा हूँ मैं |
जब तक बंधन मुक्त न
होगी 
तुम कैसे जी पाओगी 
उन्मुक्त हो समाज
में विचरण
 कैसे कर पाओगी |
खुद का अस्तित्व कैसे खोजोगी
 पराधीनता में घुट कर जियोगी 
मुस्कान का मुखौटा
लगा चहरे पर 
चह्कोगी नकली व्यबहार करोगी |
अस्तित्व  खोज अधूरी रही यदि 
 आगे कैसे बढ़ पाओगी    
क्या रखा है ऐसे
बंधनों में 
कि तुम्हारा वजूद ही खो जाए |
उन्मुक्त जीवन से बड़ा क्या है
अनावश्यक बंधन देते
त्रास 
नियम समाज के बिना
सोचे 
 अपनाने में है आनंद क्या   |
इस दुनिया में आते
ही  
वर्जनाओं की झड़ी लग
जाती 
सब समाज का अपना
क्या है 
आज तक जान नहीं पाया   |
विपरीत परिस्थिति में
तुम्हें अपनया है
पर तुम्हारे लिए कुछ कर न पाया
है बड़ा संताप मुझे |
आशा

बहुत सुन्दर बहुत सराहनीय
जवाब देंहटाएंThanks for the comment sir
जवाब देंहटाएंबढ़िया रचना है ! लेकिन जिसने विवाह के बंधन में बाँधा है वही उसे आगे बढ़ने के लिए रास्ता दिखा सकता है, उड़ने के लिए आसमान दे सकता है ! वह खुद ही उसे सलाह दे रहा है तो चिंता किस बात की !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंधन्यवाद ओंकार जी टिप्पणी केलिए |
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 18-08-2021को चर्चा – 4,161 में दिया गया है।
जवाब देंहटाएंआपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
धन्यवाद सहित
दिलबागसिंह विर्क
सुप्रभात
हटाएंआभार दिलवाग जी चर्चामंच पर मेरी रचना की सूचना के लिए |
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 19 अगस्त 2021 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
सुप्रभात
हटाएंआभार रवीन्द्र जी मेरी रचना को स्थान देने के लिए आज के अंक में |
गहनतम भाव । सुन्दर सृजन ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद अमृता जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंबहुत सुन्दर!
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ड़ा. शास्त्री जी टिप्पणी के लिए |
सुंदर रचना ! पर अपना कर भी क्यों कुछ नहीं कर पाया
जवाब देंहटाएंएक सीधी सरल किंतु गहरी कविता है। सादर।
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