क्या खोया क्या पाया मैंने
इस वृहद संसार में
यूँ ही भटकती रही अपनी
चाह की तलाश में
कभी सोचा न था यह मार्ग
इतना दुर्गम होगा
मरुभूमि में मृग मारीचिका की
होगा तलाश जैसा
मन को बहुत संताप हुआ
जब ओर न छोर मिला
सही मार्ग चुन न पाई
अपनी कमजोरी समझ न पाई
बाह्य आडम्बर ने मन मोहा
अपने अंतस को न टटोला
पर अब पछताने से क्या लाभ
समय लौटन पाया |
आशा
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (06-10-2021) को चर्चा मंच "पितृपक्ष में कीजिए, वन्दन-पूजा-जाप" (चर्चा अंक-4209) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुप्रभात
हटाएंआभार मेरी रचना की सूचना के लिए सर |
सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंधन्यवाद ओंकार जी टिप्पणी के लिए |
बहुत ही भावनात्मक हृदयस्पर्शी रचना
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंThanks for the comment sir
हटाएंबहुत सुंदर रचना है..
जवाब देंहटाएंThanks for the comment sir
जवाब देंहटाएंअत्यंत भावपूर्ण एवं सुन्दर प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंThanks for the comment a
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