दुनिया देखी जब से
भाँति भाँति के रंगों से नहाई
हर रंग जमाए अपनी धाक
शेष रंग रहे बेताव |
दिखा असंतोष उनमें आपस में
वही करते रहे प्रलाप
उनको कोई स्थान न मिला
यह कैसा न्याय मिला |
क्या यही समानता की है परिभाषा
जो मांगे सब मिल जाता है
यह कहा झूटा नहीं क्या?
“बिन मांगे मोती मिले मांगे मिले न भीख” |
है यह कैसा न्याय प्रभू
किसी को दिया धान भर झोली
किसी को केवल आशीर्वाद
मेरे भाग्य में दोनो न थे
मैं रहा सदा खाली हाथ |
अक्सर कहा जाता कर्म प्रधान होता
कोई कहता भाग्य से अधिक कुछ नहीं मिलता
मैं उलझा शब्दों की तलैया में
बाहर निकलने की राह न मिली |
वहां खड़ा हो सोच रहा कैसे बाहर आऊँ
जितनी बार यत्न किया
सर पटक कर रह गया
निकल न पाया भूलभुलैया में से |
आशा
जीवन दर्शन से परिपूर्ण उत्कृष्ट रचना ।
जवाब देंहटाएंसुप्रभात आभार यशोदा जी मेरी रचना को पांच लिंकों का आनंद में स्थान देने के लिए |
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद जिज्ञासा जी टिप्पणी के लिए |
मन की उहापोह
जवाब देंहटाएंसुन्दर सृजन।
वाह ! बहुत ही सुन्दर सशक्त रचना ! अति सुन्दर !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंसाधना धन्यवाद टिप्पणी के लिए |