कब तक बैठी राह निहारूं
तुम मुझे भूल गए हो
तुम जिस मार्ग से गए थे
उस पर से ही चल कर
अपना मार्ग प्रशस्त करूं |
मैंने कितनी बार सोचा
क्यूँ न मैं ही कदम बढाऊँ
क्यूँ अपने वजूद को भूलूँ
मार्ग कितना भी कठिन क्यूँ न हो
उसी मार्ग से तुम तक पहुंचूं |
अनेक वर्जनाएं मेरी राह रोके खड़ी है
मेरा साहस टूट गया है
लोग क्या कहेंगे ?
हर बार यही बात मेरे कदम रोकती है |
अब मुझमें इतनी शक्ति नहीं है
मैं खुद से कोई निर्णय ले पाऊँ
या समाज के आगे झुक जाऊं |
कल्पना में जीने से कोई लाभ नहीं है
यदि अपने निर्णय खुद न ले पाई
यह जीवन अकारथ हो जाएगा |
तुम आओ या मुझे बुलाओ
अधर में न लटकाओ
या मुझे इतनी शक्ति से भर दो
मुझे अपने पैरों पर खड़ी कर दो
मैं बिना रुके तुम तक पहुँच पाऊँ |
आशा
बहुत प्यारी रचना ! प्रतीक्षा की इंतहा जब हो जाती है तो मन इसी तरह अधीर हो जाता है !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद टिप्पणी के लिए |
हटाएंबहुत सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
जवाब देंहटाएंThanks for the information of my p0gt
जवाब देंहटाएंवाह!बहुत खूब!
जवाब देंहटाएं