इतनी बातें कैसे करते
किसी से घुले मिले नहीं
जब भी मन से सोचते
पाते खुद को बहुत अकेला |
जितनी बार मिलने की सोची
पाया बहुत अकेला खुद को
कोई नहीं अपना दिखता
ना ही अपनापन नजर आता |
दूर दूर तक किसी में |
यही कमी रही मुझमें
सामाजिक भी हो नहीं पाए
जहां गए वहीं किसी से
गहरे सम्बन्ध बन न पाए |
पाया अलग थलग खुद को
किसी से अपने विचार
अकेले थे अकेले ही रहे
मन से किसी के करीब न हुए
किसी को अपना न सके |
यही कमीरही मुझ में
सब से अलग करती है मुझे
अकेले आए थे इस दुनिया में
अकेले ही जाना है|
यहां कोई निश्चित स्थान भीं नहीं
जहां ठहर कर विश्राम कर पाएं
अपनी थकान मिटा पाएं
किसी को अपना कह पाएं |
आशा सक्सेना
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंधन्यवाद
जवाब देंहटाएंनकारात्मकता कभी कभी हावी होने लगती है मन पर ! उससे बचना ही श्रेयस्कर है ! नये विषय नयी बातों के बारे में सोचिये !
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