सुहानी रात में अकेले सड़क पर घूमना 
मुझे कम ही पसंद आता 
पर किसी का साथ पाकर
मन में उत्साह भर आगे बढ़ना चाहता |
हर बार की तरह मैंने कुछ आगे ना देखा 
न ही पीछे की ओर मुड़ कर देखा
अपना अस्तित्व ही खो दिया |
अब मन पछता रहा है यह मैंने क्या किया 
अब तक स्वप्नों में खोई रही
 अपने आप को स्वप्नों में खो कर 
नही कुछ पाया मैंने |
अपने मन को और दुःख पहुँँचाया है 
अपने वजूद को बहुत सम्हाल कर रखा था 
अब हुआ वह दूर मुझ से 
अब दुखी हुई बेगानी हुई अपने वजूद को खो कर 
मुझको कोई जानता नहीं पहचानता नहीं 
आज के समाज में |
यही दुःख मुझे अब सालने लगा है 
अब मैं अंतरमुखी होती जा रही हूँ 
ना किसी से मिलने जुलने का मन ही होता 
एकांतवास की इच्छा बलवती हो उठी है |
आशा सक्सेना
जीवन में ऐसे पल भी आते रहते हैं ! मन की उथल पुथल की अच्छी अभिव्यक्ति !
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