झुकाव धर्म की ओर
हुआ जीवन अधूरा तुम्हारे बिना
पहले भी खालीपन रहता था
जब कभी तुम बाहर जाते थे
जल्दी ना लौट पाते थे |
आते ही मेरी शिकायतों की
दुकान लग जाती थी
फिर भी देर तक रूठी ना रह पाती थी
मन ही जाती थी |
अब वह भी संभव नहीं
तुमने साथ जब छोड़ा मैं
अकेलेपन से घिरी
अब किसी का साथ नहीं है
मन पर बोझ भारी है |
कितनी कोशिश करती हूँ
मन को व्यस्त रखने की
पर चित्त एकाग्र नहीं हो
पाता
कैसे उसे समझाऊँ ,यह किसी
ने न बताया |
धीरे धीरे आध्यात्म की
ओरझुकाव होने लगा
शायद सफल हो पाऊं इसमें कुछ तो कर पाऊं
प्रभु को पाकर ही अपने को
धन्य मानूं |
आशा सक्सेना
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