05 अक्तूबर, 2010

कवि

रहता भावना के समुद्र में ,
जीता स्वप्नों की दुनिया में ,
गोते लगाता ,
ऊपर नीचे विचारों में ,
सुख हो या दुःख ,
उन्हें दिल से लगाये रहता ,
संबल ह्रदय का देता ,
कैसी भी छबी क्यूँ ना हो ,
ह्रदय में उतार लेता ,
शब्द जाल बुनता रहता ,
वह स्वयं नहीं जानता ,
जानना भी नहीं चाहता ,
वह कहाँ खोया रहता है ,
किस दुनिया में रहता है ,
जैसे स्वप्न रंगीन होते हें ,
तो कभी बेरंग भी ,
जीवन उसका भी होता है ,
कभी रंगीन,
तो कभी बे रंग ,
सामान्य बहुत कम रहता है ,
मन की बात किसी से,
कहना भी नहीं चाहता ,
किसी से बांटना भी नहीं चाहता ,
होती अधिक अकुलाहट जब ,
एकांत में घंटों ,
गुमसुम बैठा रहता है ,
अपने में खोया रहता है ,
एकाएक उठता है,
लिखना प्रारम्भ करता है ,
नयी कविता का ,
सृजन करता है ,
कुछ होती ऐसी ,
जो दिल को छू जाती हें ,
पर कुछ तो ,
सर पर से गुजर जाती हें ,
उसे समझना सरल नहीं ,
होता व्यक्तित्व दोहरा उसका ,
लेखन में कुछ झलकता है ,
और वास्तव में ,
कुछ और होता है ,
आकलन ऐसे व्यक्तित्व का ,
कैसे किया जाए ,
परिभाषित 'कवि 'शब्द को ,
कैसे किया जाए ||
आशा

04 अक्तूबर, 2010

सहनशीलता

सरल नहीं सहनशील होना ,
इच्छा शक्ति धरा सी होना ,
है धरती विशाल फिर भी ,
नहीं दूर अपने कर्त्तव्य से ,
सतत परिक्रमा करती सूर्य की ,
फिर भी नहीं थकती ,
देता है शीतलता उसे चंद्र ,
पर आदित्य से डरता है ,
जैसे ही उसे देखता है ,
जाने कहां छिप जाता है ,
गर्मी सर्दी और वर्षा ,
सभी सहन करती है ,
जन्म से आज तक ,
धधकती आग ,
हृदय में दबाए बैठी है ,
जलनिधि रखता,
सारा बोझ उसी पर ,
वहन उसे भी करती है ,
चांद सितारों की बातें की सबने ,
पर उसे किसी ने नहीं जाना ,
ना ही ठीक से पहचाना ,
जब कभी विचलित होती है ,
हल् चल उसमें भी होती है ,
ज्वालामुखी धधकते हें ,
क्रोध प्रदर्शित करते हें ,
वह अशांत सी हो जाती है ,
वह फिर यह सोच,
शांत हो जाती है ,
जो जीव यहां रहते हें ,
उसके आश्रय में पलते हें ,
आखिर उनका क्या होगा ?
उस जैसा धीर गंभीर होना ,
इतना सरल नहीं है ,
सहनशीलता उसकी अनोखी ,
जो अनुकरणीय है |
आशा |

03 अक्तूबर, 2010

वह नहीं जानता ,

अनेक दर्द दिल में छिपाए उसने ,
है ऐसा क्या उन में ,
बांटने से भी डरता है ,
उन पर चर्चा,
से भी हिचकता है ,
कई बार लगता है ,
बांटने से दिल का बोझ ,
किसी हद तक कम हो सकता है ,
पर यदि वह ना चाहे ,
कोई क्या कर सकता है ,
शायद वह नहींसीख पाया ,
मिलजुल कर रहने की आदत ,
नहीं पहचान पाया ,
जीवन में उसकी जरूरत ,
यही कारण दीखता है ,
किसी से साँझा नही करता ,
खुद भी अकेला रहता है ,
गम के दरिया में बहता रहता है ,
उदासी पीछा नहीं छोडती ,
वीरान जिंदगी लगती है ,
आवश्कता मित्रों की ,
महत्व उनके होने का ,
जब वह समझ पाएगा ,
विचारों का सांझा करेगा ,
तब बोझ दिल पर ना होगा ,
मित्रों में बात जाएगा ,
वह प्रसन्न रह पाएगा |
आशा

02 अक्तूबर, 2010

हें हम सब एक

अँग्रेज जब होने लगा कमजोर ,
कुछ नेताओं से हाथ मिलाया ,
टुकड़े देश के करवाए ,
बीज ऐसे बोए नफरत के ,
बड़े हुए, वृक्ष बने कटीले ,
काँटों से दिल छलनी कर गए ,
जब बटवारा होने को था ,
खेली गई खूनी होली ,
परिवार अनेकों उजड गए,
कई बच्चे अनाथ हो गए ,
मन मैं बैर ऐसा पनपा ,
पीछा अब तक छूट न पाया ,
चाहे कोई बहाना हो ,
देश अशांत होता आया ,
जिनमे समझ है पढेलिखे हें ,
वे तक जान नहीं पाए ,
किस धर्म में है ऐसा ,
मनुष्य मनुष्य का,
दुश्मन होजाए ,
होता है धर्म व्वाक्तिगत ,
है व्यर्थ उसे मुद्दा बनाना ,
वह किस धर्म को मानता है ,
चेहरे पर लिखा नहीं है ,
जीवन की समाप्ति पर ,
शरीर नष्ट हो जाता है ,
होता विलीन पञ्च तत्त्व में ,
केवल अच्छे कर्म ,
याद किये जाते हें ,
वह था किस धर्म का ,
चर्चा नहीं होती ,
जमीन में दफनाया जाए ,
या अग्निदाह किया जाए ,
या बहा दिया जाए ,
किसी जल धारा में ,
क्या फर्क पडता है ,
जाने वाला तो चला गया ,
यह संसार छोड़ गया ,
फिर जीते जी क्यूँ ,
हों हंगामे इतने ,
भाई भाई न रहे ,
दुश्मनी पले हर ओर फैले ,
हो जब भी आवश्यकता ,
एक जुट होने की ,
नासमझी आड़े ना आए ,
देश के हर कौने से,
आवाज उठे सब कहें ,
हें हम सब एक ,
है देश हमारा एक |
आशा

30 सितंबर, 2010

घुमक्कड़

हूं एक घुमक्कड़ ,
घूमना अच्छा लगता है ,
घना जंगल बहता झरना ,
घंटों वहाँ बैठे रहना ,
मन को शान्ति देता है ,
देखा जब दूरस्थ ग्राम ,
कच्ची पगडंडी पहुँच मार्ग ,
छोटे २ माटी के मकान ,
इच्छा हुई वहां जाऊं ,
अधनंगे खेलते बच्चे ,
रिक्त पड़ा शाला परिसर ,
साम्राज्य पंक का चारों ओर ,
निष्क्रीय बैठे शिक्षक ,
है कैसी दुर्दशा शिक्षा की ,
मन दुखित हुआ
और चल दिया ,
किसी नई जगह की तलाश में ,
जा पहुँचा कंजरों के गाँव में ,
चोरी डाका जिनका काम ,
पड़ने लिखने से दूर बहुत ,
अपना धंधा करते पसन्द ,
भय भीत सदा ही रहते हें ,
बच्चों को शाला भेजने में ,
होता वह दिन सौभाग्य का ,
जब कोई बच्चा शाला आता ,
है श्याम पट कोरा ,
ऐसा अवसर कभी न आया ,
कि 'आ ' भी कभी लिखा जाता ,
कोई नोनिहाल पढ़ने आता ,
कदम मेरे थकने लगते हें ,
फिर भी बढ़ता जाता हूं ,
कुछ नया देखने की चाह में ,
आ गया हूं नए ग्राम में ,
है दृश्य बड़ा मनोहर ,
लिपे पुते कच्चे मकान ,
बने हुए मांडने जिन पर ,
है यह आदिवासियों का ग्राम ,
हुआ बहुत शोषण उनका भी ,
पर अपने ढंग से जीते हें ,
शाम ढले सभी एकत्र हो ,
मनोरंजन में डूब जाते हैं ,
गायन वादन और नर्तन ,
थिरकते कदम ताल पर ,
मन उनमे खो जाता है ,
उनमे रमता जाता है ,
रुकना मानसिकता नहीं मेरी ,
एक ओर चल देता हूं ,
दूधिया प्रकाश में नहाता ,
एक शहर दिखाई देता है ,
जीवन है गतिमान यहाँ ,
बड़ी बड़ी अट्टालिकाएं ,
शरण स्थली लोगों की ,
हें सभी व्यस्त अपने अपने में ,
पर पास की झोपड पट्टी में ,
कई अपराध जन्म लेते हें ,
पनपते हें पलते हें ,
यह देख मन उचटने लगता है ,
फिरसे चलना चाहता हूं ,
कल कल करते जल प्रपात तक ,
बैठ जहां प्रकृति के आंचल में ,
फिरसे मनन करू उन सब पर ,
जो जैसे हें वही रहेंगे ,
या कोई परिवर्तन होगा ,
यदि शिक्षा पर ध्यान दिया जाए ,
शायद कोई परिवर्तन आए |
आशा

29 सितंबर, 2010

दीवाने

यहाँ आते हैं बैठते हैं
करते बातें आपस में
हैं मित्र बहुत गहरे
अनुभव बांटते हैं
हैं तो सब कलाकार
पर रहते अपनी धुन में
कला में खोए रहते
कहते हें कुछ न कुछ
कभी बात पूरी होती है
कभी अधूरी रह जाती
वह है एक शिल्पकार
कुछ कहता है
रुक जाता है
लगता है
छेनी हतोड़ीं चला रहा
कोई मूरत बना रहा
मंद मंद मुस्काता
मन की बात बताता
यह कला नहीं इतनी आसान
वर्षों लग गए है
पर चाहता हं जो
पा नहीं पाता
बात अभी अधूरी थी
आकाश देख चित्रकार
प्रसन्नवदन मुखरित हुआ
जाने क्या सोचा
तन्मय हो बोल उठा
वाह! प्रकृति भी है क्या
नित नई कल्पना
मुझे व्यस्त कर देती है
हाथोंसे देते ताल
गुनगुनाते संगीतकार
कैसे चुप रह जाते
हलके से मुस्करा कर बोले
लो सुनो नई बंदिश
है नया इसमें कुछ
नर्तक बंदिश में खोने लगा
अभिव्यक्ति नयनों से
और हाथों का संचालन
लगा अभी उठेगा
अपनी भाव भंगिमा से
बंदिश को अजमाएगा
पर ऐसा कुछ नहीं होता
आधी अधूरी हें सब बातें
सब अपने में खोए रहते
कुछ समय ठहर
चल देते हें
कुछ लोग उन्हें
पागल कहते हें
हँसते भी हें
कई लोग समझते
दीवाना उन्हें
पर वे यह नहीं जानते
सब हें कलाकार और निपुण
अपने अपने क्षेत्र मैं |

आशा

28 सितंबर, 2010

तुझे समझना सरल नहीं है

रहता नयनों का भाव ,
एकसा सदा,
ना होता परिवर्तन मुस्कान में ,
और ना कोई हलचल ,
भाव भंगिमा में ,
लगती है ऐसी ,
जैसे हो मूरत एलोरा की ,
स्पर्श का प्रसंग आते ही ,
पिघलने लगती है ,
मौम सी ,
प्रस्तर प्रतिमा कहीं,
विलुप्त हो जाती है ,
समक्ष दिखाई देती है ,
चंचल चपला सी ,
हो जाती है ,
मोम की गुड़िया सी ,
कितना अंतर दिखता है ,
तेरे दौनों रूपों में ,
तुझे समझना सरल नहीं है ,
मनोभावों का आकलन,
बहुत कठिन है,
क्या सोचती है ?
क्या चाहती है ?
बस तू ही जानती है ,
है इतना अवश्य ,
न्रत्य में जान डाल देती है ,

आशा