11 दिसंबर, 2020

कविता


 

                                    मेरे अंतर्मन से उठते भाव

हुए बेचैन शब्दों में बंधने  को

मीठे मधुर बोलों से बंधे हैं

कविता की पतंग की डोर बने हैं |

रस रंग में सराबोर है

उड़ने को है तैयार कविता

कोई उसे यदि  दे छुट्टी

  आसमान छूने की ललक  रखती है |

वह सबसे टक्कर ले सकती है

हार नहीं स्वीकार उसे

डोर उसकी है इतनी सक्षम

काटती है अन्य पतंगों को |

पेच पर पेच लड़ाती है

फिर भी कटने से बची रहती

है आखिर कविता ही

कभी हार भी जाती है |

डोर से अलग हो व्योम में

स्वतंत्र विचरण करती है

पर फिर से दूने जोश से

मैदान में उतरती है |

इस बार वह रस रंग

 छंद व अलंकारों की पुच्छ्लों से  सजी है

भाषा का लालित्य छलकता है

उसके अंग अंग से |

कविता की पतंग

जब ऊंचाई छू लेती है

सभी मन को थाम लेते हैं

वाह वाह करते नहीं थकते |

 मन के भावों को मिलते  विश्राम के दो पल

 फिर  नई चेतना  अंगडाई लेती है

स्वप्नों की दुनिया  से जागते ही

नया सोच उभर कर आता है |

 वह  शब्दों की डोरी से बंधता जाता  है

 एक नई कविता  को आसमान छूने के लिए

 उड़ने के लिए पंख मिलते हैं

 यही सब के मन को भाता है|

आशा

  

 

 

 

मौसम बेईमान हो गया


                                                         मौसम बड़ा बेईमान हो गया  

अपनी मनमानी करने लगा है  

वर्षा का क्या कोई ईमान नहीं

 चाहे अनचाहे दस्तक देती है |

हरी भरी फसल जमीन पर पसरी है

 सारी मह++नत विफल हुई है

सुरमई बादलों को

 जब देखा आसमान में |

गरजते बरसते   नहला जाते हैं 

बेमौसम उत्पात मचा जाते   है

मौसम का मिजाज बदल रहा है

वे सर्दी और बढ़ा जाते हैं |

आशा

 

 

10 दिसंबर, 2020

आगे न जाने क्या होगा



आँखों पर चश्मा हाथ में लाठी

कमर झुकी है आधी आधी

हूँ हैरान सोच नहीं पाती

 इतना परिवर्तन हुआ कब  कैसे |

है शायद यही नियति जीवन की

इससे  भाग नहीं सकते

कितनी भी कोशिश कर लें

इससे मुक्ति पा नहीं सकते |

बने सवरे घंटों पार्लर में बैठे

जाने कब यौवन बीत गया

पर मैं  रोक नहीं पाई

आने से वृद्धावस्था के  इस पड़ाव को |

अब तो इन्तजार है अगले पड़ाव का

जहां कोई कभी  नहीं जगाएगा

किसी बात पर बहस न होगी

मृत्यु  उपरान्त की  शान्ति रहेगी  |

आशा

 

 

 

 

07 दिसंबर, 2020

समाज देख रहा


                                                           समाज देख रहा मूँद नयन सब

 जो हो रहा जैसा भी हो रहा

बिना सुने और अनुभव करे

निर्णय तक भी पहुँच रहा |

उसकी लाठी है बेआवाज

जब चलेगी हिला कर रख देगी

दहला देगी दिल को

और सारे परिवेश को

केवल बातों के सिवाय

होगा कोई न निकाल |

और अधिक उलझनों की

लग जाएगी दुकान

कैसे इनसे छुटकारा मिलेगा  

कभी सोचना समय निकाल |

शायद कोई हल खोज पाओ

मुझे भी निदान बता देना

समाज रूपी नाग के दंश से

कैसे आजादी पाऊँ मुझे भी  जता देना |

जब होगा तालमेल समाज से   

तभी शान्ति मन को होगी

जीवन की समस्याएँ तो

अनवरत  चलती रहेंगी |

वे आई हैं  जन्म  के साथ

और जाएंगी मृत्यु के साथ

अब और परेशानी नहीं चाहिए

जितनी है वही है पर्याप्त |

आशा