मेरे अंतर्मन से उठते भाव
हुए बेचैन शब्दों में बंधने को
मीठे मधुर बोलों से बंधे हैं
कविता की पतंग की डोर बने हैं |
रस रंग में सराबोर है
उड़ने को है तैयार कविता
कोई उसे यदि दे छुट्टी
आसमान छूने की ललक रखती है |
वह सबसे टक्कर ले सकती है
हार नहीं स्वीकार उसे
डोर उसकी है इतनी सक्षम
काटती है अन्य पतंगों को |
पेच पर पेच लड़ाती है
फिर भी कटने से बची रहती
है आखिर कविता ही
कभी हार भी जाती है |
डोर से अलग हो व्योम में
स्वतंत्र विचरण करती है
पर फिर से दूने जोश से
मैदान में उतरती है |
इस बार वह रस रंग
छंद व अलंकारों की पुच्छ्लों से सजी है
भाषा का लालित्य छलकता है
उसके अंग अंग से |
कविता की पतंग
जब ऊंचाई छू लेती है
सभी मन को थाम लेते हैं
वाह वाह करते नहीं थकते |
मन के भावों को मिलते विश्राम के दो पल
फिर नई चेतना अंगडाई लेती है
स्वप्नों की दुनिया से जागते ही
नया सोच उभर कर आता है |
वह शब्दों की डोरी से बंधता जाता है
एक नई कविता को आसमान छूने के लिए
उड़ने के लिए पंख मिलते हैं
यही सब के मन को भाता है|
आशा