आस्था के भँवर में फँस कर
हर इन्सान घूमता है 
घूमता ही रह जाता  है |
निकलना भी  चाहे अगर
नहीं मिलती है कोई राह 
वह बस घूमता है 
घूमता ही रह जाता है |
आस्था यदि सत्य में हो 
तो कुछ समझ आता है 
पर आडम्बर   से युक्त
व्यवस्था समाज की 
भुला देती है भ्रम सारे |
कोई भी यत्न नहीं तोड़ पाते इसे
सामाजिक आस्था के भँवर में
वह घूमता है 
घूमता ही रह जाता है |
आस्था यदि धर्म में हों
तो भी कुछ बात है 
पर धार्मिक ढकोसलों में
उलझी आस्था 
केवल संताप है ,विश्वास नहीं
इसी लिए घूमते-घूमते ही
इस भँवर  से 
आस्था भी उठना चाहती है 
निकलना चाहती है
इस धार्मिक उन्माद से |
पर मनों बोझ सह कर भी 
होता नहीं आसान निकलना
आस्था के भँवर जाल से |
आस्था यदि मनुष्य की मनुष्य में हो
तब भी सोच होता है 
पर जब तोड़ देता है मनुष्य 
मनुष्य में उत्पन्न आस्था का भ्रम 
तब घुटता है दम 
आस्था का भँवर
लील जाता है इन्सान को |
बस वह डूबता है उतराता है
उलझ कर रह जाता है
आस्था के भँवर  जाल   में |
आशा
02 जनवरी, 2010
01 जनवरी, 2010
नूतन अभिनंदन
नूतन हो नव वर्ष 
मैं सब का अभिनंदन करने आया हूँ
आज पा सुअवसर 
तुम्हारा नेह माँगने आया हूँ |
अधिक समय तक रहा सुप्त 
छिपा कर प्यार रहा उन्मुक्त 
स्वयं  को जान, अपनों को पहचान 
नेह निमंत्रण देने आया हूँ 
हे सुभगे मैं तुम्हें मनाने आया हूँ |
मुझसे रूठी सारी खुशियाँ
जबसे  तुमसे रहा दूर 
इस अनजानी दूरी को 
मैं स्वयं  मिटाने आया हूँ 
नूतन वर्ष की इस बेला में
मैं प्यार बांटने  आया हूँ |
अपनी कमियों को पहचान 
सपनों में भी उनसे रहा दूर
अपनों ने मुझे भुलाया  
 मन में  मेरे शूल चुभाया  
 फासला  और बढ़ाया  
पर  मैं इस अंतर को 
सह नहीं पाया 
रह न सका दूर सब से 
चाहता दूर मतभेद करना 
नूतन अभिनंदन हे सुभगे
मैं तुम्हें मनाने आया हूँ |
आज सुअवसर देख 
तुम्हारा नेह पाने आया हूँ |
आशा
28 दिसंबर, 2009
मेरी पहचान
जब मैं छोटी बेटी थी मनसा था मेरा नाम 
बड़ी शरारत करती थी पर थी मैं घर की शान |
वैसे तो माँ से डरती थी ,
माँ के आँख दिखाते ही मैं सहमी-सहमी रहती थी ,
मेरी आँखें ही मन का दर्पण होती थीं,
व मन की बातें कहती थीं
एक दिन की बताऊँ बात ,
जब मैं गई माँ के साथ ,
सभी अजनबी चेहरे थे ,
हिल मिल गई सभी के साथ ,
माँ ने पकड़ी मेरी चुटिया
यही मेरी है प्यारी बिटिया ,
मौसी ने प्यार जता पूछा ,
"इतने दिन कहाँ रहीं बिटिया? "
तब यही विचार मन में आया ,
क्या मेरा नाम नही भाया ,
जो मनसा से हुई आज बिटिया
बस मेरी बनी यही पहिचान ,
'माँ की बिटिया' 'माँ की बिटिया' |
जब मै थोड़ी बड़ी हुई ,
पढ़ने की लगन लगी मुझको ,
मैंने बोला, "मेरे पापा मुझको शाला में जाना है !"
शाला में सबकी प्यारी थी ,
सर की बड़ी दुलारी थी ,
एक दिन सब पूंछ रहे थे ,
"कक्षा में कौन प्रथम आया ,
हॉकी में किसका हुआ चयन ?"
शिक्षक ने थामा मेरा हाथ ,
परिचय करवाया मेरे साथ ,
कहा, "यही है मेरी बेटी ,
इसने मेरा नाम बढ़ाया !"
तब बनी मेरी वही पहचान ,
शिक्षक जी की प्यारी शान
बस मेरी पहचान यही थी ,
मनसा से बनी गुरु की शान |
जिस दिन पहुँची मैं ससुराल ,
घर में आया फिर भूचाल ,
सब के दिल की रानी थी ,
फिर भी नहीं अनजानी थी ,
यहाँ मेरी थी क्या पहचान ,
केवल थी मै घर की जान ,
अपनी यहाँ पहचान बनाने को ,
अपना मन समझाने को ,
किये अनेक उपाय ,
पर ना तो कोई काम आया ,
न बनी पहचान ,
मै केवल उनकी अपनी ही ,
उनकी ही पत्नी बनी रही ,
बस मेरी बनी यही पहचान ,
श्रीमती हैं घर की शान ,
अब मैं भूली अपना नाम ,
माँ की बिटिया ,गुरु की शान ,
उनकी अपनी प्यारी पत्नी ,
अब तो बस इतनी ही है ,
मेरी अपनी यह पहचान ,
बनी मेरी अब यही पहचान |
आशा
बड़ी शरारत करती थी पर थी मैं घर की शान |
वैसे तो माँ से डरती थी ,
माँ के आँख दिखाते ही मैं सहमी-सहमी रहती थी ,
मेरी आँखें ही मन का दर्पण होती थीं,
व मन की बातें कहती थीं
एक दिन की बताऊँ बात ,
जब मैं गई माँ के साथ ,
सभी अजनबी चेहरे थे ,
हिल मिल गई सभी के साथ ,
माँ ने पकड़ी मेरी चुटिया
यही मेरी है प्यारी बिटिया ,
मौसी ने प्यार जता पूछा ,
"इतने दिन कहाँ रहीं बिटिया? "
तब यही विचार मन में आया ,
क्या मेरा नाम नही भाया ,
जो मनसा से हुई आज बिटिया
बस मेरी बनी यही पहिचान ,
'माँ की बिटिया' 'माँ की बिटिया' |
जब मै थोड़ी बड़ी हुई ,
पढ़ने की लगन लगी मुझको ,
मैंने बोला, "मेरे पापा मुझको शाला में जाना है !"
शाला में सबकी प्यारी थी ,
सर की बड़ी दुलारी थी ,
एक दिन सब पूंछ रहे थे ,
"कक्षा में कौन प्रथम आया ,
हॉकी में किसका हुआ चयन ?"
शिक्षक ने थामा मेरा हाथ ,
परिचय करवाया मेरे साथ ,
कहा, "यही है मेरी बेटी ,
इसने मेरा नाम बढ़ाया !"
तब बनी मेरी वही पहचान ,
शिक्षक जी की प्यारी शान
बस मेरी पहचान यही थी ,
मनसा से बनी गुरु की शान |
जिस दिन पहुँची मैं ससुराल ,
घर में आया फिर भूचाल ,
सब के दिल की रानी थी ,
फिर भी नहीं अनजानी थी ,
यहाँ मेरी थी क्या पहचान ,
केवल थी मै घर की जान ,
अपनी यहाँ पहचान बनाने को ,
अपना मन समझाने को ,
किये अनेक उपाय ,
पर ना तो कोई काम आया ,
न बनी पहचान ,
मै केवल उनकी अपनी ही ,
उनकी ही पत्नी बनी रही ,
बस मेरी बनी यही पहचान ,
श्रीमती हैं घर की शान ,
अब मैं भूली अपना नाम ,
माँ की बिटिया ,गुरु की शान ,
उनकी अपनी प्यारी पत्नी ,
अब तो बस इतनी ही है ,
मेरी अपनी यह पहचान ,
बनी मेरी अब यही पहचान |
आशा
22 दिसंबर, 2009
माँ
अतुलनीय है प्यार ,
तुम्हारे नेह बंध का सार ,
मुझ में साहस भर देता है ,
नहीं मानती हार ,
माँ तुझे मेरा शत-शत प्रणाम  |
आज जहाँ मै  खड़ी हुई हूँ ,
जैसी हूँ ,
तुमसे ही  हूँ  मैं ,
मुझे यही हुआ अहसास ,
माँ तुझे मेरा प्रणाम |
तुमने मुझ में कूट- कूट कर 
भरा आत्म विश्वास ,
माँ मेरा तुझे शत-शत प्रणाम |
न कोई वस्तु मुझे लुभाती ,
कभी किसी से ना भय खाती ,
रहती सदा ससम्मान ,
माँ मेरा तुझे हर क्षण प्रणाम !
आशा
21 दिसंबर, 2009
घर
यह घर है या पागलखाना ,
यहाँ रहता है हर कोई बेगाना ,
निराली सब की दुनिया ,
अलग-अलग दिमाग ,
किसे कहूँ अपना ,
जीना हुआ मुहाल |
केवल बातों का अम्बार ,
हर पल बहस बनी बबाल ,
किसे दूँ सरंजाम ,
यहाँ की हर बात निराली है
अनोखा है व्यवहार |
हर एक हँसता है ,
पर अंतस खोखला है ,
हर शब्द सहमा है ,
पर अंतस भभकता है ,
किसे किस की तलाश ,
किस नतीजे का इंतजार !
रिक्त जीवन की मीमांसा का यह कैसा अधिकार !
आशा
यहाँ रहता है हर कोई बेगाना ,
निराली सब की दुनिया ,
अलग-अलग दिमाग ,
किसे कहूँ अपना ,
जीना हुआ मुहाल |
केवल बातों का अम्बार ,
हर पल बहस बनी बबाल ,
किसे दूँ सरंजाम ,
यहाँ की हर बात निराली है
अनोखा है व्यवहार |
हर एक हँसता है ,
पर अंतस खोखला है ,
हर शब्द सहमा है ,
पर अंतस भभकता है ,
किसे किस की तलाश ,
किस नतीजे का इंतजार !
रिक्त जीवन की मीमांसा का यह कैसा अधिकार !
आशा
19 दिसंबर, 2009
त्यौहार समभाव
राखी, ईद, दिवाली, होली, बैसाखी और ओनम ,
साथ मना कर रंग जमायें, खुशियों से आखें हों नम |
आओ हिलमिल साथ मनायें पोंगल और बड़ा दिन ,
हर त्यौहार हमारा अपना ,
हम अधूरे इन बिन |
सूना-सूना जीवन होगा और ज़िन्दगी बेरंग ,
झूठा मुखौटा धर्म का न होगा अनावृत इन बिन |
अनेकता में एकता का रहा यही इतिहास ,
राष्ट्रीय पर्व यदि ना होते ना होता विश्वास |
आस्थाएँ टूट जातीं व होता हमारा ह्रास ,
इसीलिए सब साथ मनायें ये सारे त्यौहार |
सारे पर्व भरे जीवन में एक नया उत्साह ,
अनेकता में एकता का बना रहे इतिहास |
नया नहीं कुछ करना है जीवन मे रंग भरना है ,
नित नये त्यौहार मनायें खुश हो सब संसार|
सब में समभाव ज़रूरी है ,
नहीं कोई उन्माद ज़रूरी है ,
सब में सदभाव ज़रूरी है ,
यही है आज की माँग ,
हम सब साथ मनायें ये सारे त्यौहार |
आशा
साथ मना कर रंग जमायें, खुशियों से आखें हों नम |
आओ हिलमिल साथ मनायें पोंगल और बड़ा दिन ,
हर त्यौहार हमारा अपना ,
हम अधूरे इन बिन |
सूना-सूना जीवन होगा और ज़िन्दगी बेरंग ,
झूठा मुखौटा धर्म का न होगा अनावृत इन बिन |
अनेकता में एकता का रहा यही इतिहास ,
राष्ट्रीय पर्व यदि ना होते ना होता विश्वास |
आस्थाएँ टूट जातीं व होता हमारा ह्रास ,
इसीलिए सब साथ मनायें ये सारे त्यौहार |
सारे पर्व भरे जीवन में एक नया उत्साह ,
अनेकता में एकता का बना रहे इतिहास |
नया नहीं कुछ करना है जीवन मे रंग भरना है ,
नित नये त्यौहार मनायें खुश हो सब संसार|
सब में समभाव ज़रूरी है ,
नहीं कोई उन्माद ज़रूरी है ,
सब में सदभाव ज़रूरी है ,
यही है आज की माँग ,
हम सब साथ मनायें ये सारे त्यौहार |
आशा
18 दिसंबर, 2009
मुक्तक
बस न केवल  सड़क पर चलती है ,
आम आदमी के दिलों को जोड़ती है ,
कहीं कोई आये ,कहीं कोई जाये ,
वह तो मनोभावों को तोलती है |
आशा
आम आदमी के दिलों को जोड़ती है ,
कहीं कोई आये ,कहीं कोई जाये ,
वह तो मनोभावों को तोलती है |
आशा
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ (Atom)