कुछ लोग ऐसे भी होते हैं ,
जो कभी बड़े नहीं होते ,
मन की कुंठाओं को ढोते-ढोते ,
पार किये उम्र के कितने पड़ाव ,
पर बीच में कहीं ठिठक गये ,
मन में कई अवसाद लिये ,
बड़े कहलाने की चाहत
रखते हैं ,
पर संयत व्यवहार नहीं करते ,
कुंठाओं  से नहीं उबर पाते ,
निंदा रस का स्वाद आत्मसात कर लेते हैं ,
पर निंदा का कोई अवसर ,
नहीं हाथ से जाने देते ,
हीन भावना के परिचायक ,
सब को तुच्छ समझते हैं ,
दुनियादारी से दूर बहुत ,
खुद को बहुत समझते हैं ,
दूरी सबसे रखते हैं ,
अहम भाव से भरे हुए ,
संकीर्ण मानसिकता के
पुरोधा होते हैं |
आशा
07 मई, 2010
05 मई, 2010
उदासी का नामोंनिशां नहीं होगा
तुम गुमसुम से क्यूँ बैठे हो 
कुछ अधिक उदास ही रहते हो 
कोई तो ऐसी बात करो 
जो तुमको भी रास आ जाये 
मेरा मन भी  बहला जाये 
कुछ तुम सोचो कुछ मैं सोचूँ 
दोनों का सोच यदिहो एक् सा 
दुनिया रंगीन नजर आये 
दुःख से दुनिया भरी हुई है 
पर सुख की भी कोई कमी नहीं  
दुःख से तुम किनारा कर लो 
सुख से ही बस नाता जोड़ो 
सारे कष्ट भुला कर अपने 
खुशियों से   रिश्ता जोड़ो 
कुछ तुम बढ़ो कुछ मै बढूँ 
दुनिया के सब बंधन तोडूँ 
मेरा हाथ जब  थामोगे 
मुझे अपने साथ  पाओगे 
देखो दुनिया कितनी रंगीन 
खुशियों से दामन भर लाओ 
आने वाले कल को अपनाओ 
खुशियों से भरा कल होगा 
उदासी का नामोनिशां नहीं होगा |
आशा
04 मई, 2010
अनुपम छटा प्रकृति की
रात चाहे कितनी लम्बी हो 
इसके बाद सुबह होती है
बाल सूर्य की प्रथम किरण
अंधकार को धो देती है |
मंद हवा का स्पंदन
खुशबू से भरता उपवन
इसके बाद सुबह होती है
बाल सूर्य की प्रथम किरण
अंधकार को धो देती है |
मंद हवा का स्पंदन
खुशबू से भरता उपवन
फूलों से गंध चुरा लाया 
सारे उपवन को महकाया |
बाल सूर्य की स्वर्णिम किरणें
चारों  ओर बिखरने लगीं 
मन बंजारा ठहर गया 
स्वर्णिम आभा में सराबोर हुआ |
प्रकृति की रंगीन  छटा 
अंतस में घर करने लगी 
अरुणाई समस्त व्योम की 
अपनी बाँहों में भरने लगी|
अमलतास के  फूलों से 
पीली धरती पीला उपवन 
पुष्प गुच्छों  में स्पंदन 
उनमें से किरणों का विचरण |
रंग बिरंगे फूलों से 
सजा हुआ पूरा उपवन 
मन  भावन दृश्य उभरने लगा 
अंतरमन में सिमटने लगा |
सूरज की किरणों का 
स्वागत करता पूरा मधुवन 
मन प्रफुल्लित हो जाता है 
प्रकृति में रमता जाता है |
चिड़ियों का कलरव उड़ना उनका 
मन के तारों को छूने लगा
मन झंकृत होने लगा 
यह अद्भुत छटा प्रकृति की 
अनुपम देन  वन देवी की |
आशा
03 मई, 2010
यदि ऐसा होता
उपालंभ तुम देते रहे 
हर बार उन्हें वह सहती रही 
जब दुःख हद से पार हुआ 
उसका जीना  दुश्वार हुआ 
कुछ अधिक सहा और  सह न सकी 
उसका मन बहुत  अशांत हुआ 
पानी जब सिर से गुजर गया 
उसने सब पीछे छोड़ दिया 
निराशा  मन में घर करने लगी 
जीने का मोह भंग हुआ 
अपनी खुशियाँ अपने सुख दुःख 
मुट्ठी में बंद किये सब कुछ 
अरमानों की बलिवेदी पर 
खुद की बली  चढ़ा बैठी 
जीते  जी खुद को मिटा बैठी 
दो शब्द प्यार के बोले होते 
दिल के रहस्य खोले होते 
जीवन में इतनी कटुता ना होती 
वह हद को पार नहीं करती 
सदा तुम्हारी ही रहती |
आशा
01 मई, 2010
बंधन प्रेम का
कुछ ऐसी बात करो मुझसे ,
जो मेरे मन पर छा जाये ,
आहत पक्षी की तरह ,
मुझको भी जीना आ जाये |
आज मुझे छोड़ कर ,
तुम कैसे जा पाओगे ,
यह है एक ऐसा बंधन ,
जिसको ना तोड़ पाओगे |
प्रेम पाश में बाँध कर मेरे ,
खींचते चले आओगे ,
मुझ से बच कर दूर बहुत ,
आखिर तुम कहाँ जाओगे |
मैंने जो प्यार दिया तुमको
उसे कैसे झुठलाओगे ,
मुझ को दंश प्रेम का दे कर ,
तुम कैसे जा पाओगे |
मेरे साथ बिठाये हर पल ,
छाया बन कर साथ चलेंगे ,
यह निस्वार्थ प्रेम का बंधन ,
कैसे उसे भुला पाओगे |
आशा
जो मेरे मन पर छा जाये ,
आहत पक्षी की तरह ,
मुझको भी जीना आ जाये |
आज मुझे छोड़ कर ,
तुम कैसे जा पाओगे ,
यह है एक ऐसा बंधन ,
जिसको ना तोड़ पाओगे |
प्रेम पाश में बाँध कर मेरे ,
खींचते चले आओगे ,
मुझ से बच कर दूर बहुत ,
आखिर तुम कहाँ जाओगे |
मैंने जो प्यार दिया तुमको
उसे कैसे झुठलाओगे ,
मुझ को दंश प्रेम का दे कर ,
तुम कैसे जा पाओगे |
मेरे साथ बिठाये हर पल ,
छाया बन कर साथ चलेंगे ,
यह निस्वार्थ प्रेम का बंधन ,
कैसे उसे भुला पाओगे |
आशा
30 अप्रैल, 2010
जीने की ललक अभी बाकी है
स्वत्व पर मेरे पर्दा डाला ,
मुझको अपने जैसा ढाला ,
बातों ही बातों में मेरा ,
मन बहलाना चाहा ,
स्वावलम्बी ना होने दिया ,
अपने ढंग से जीने न दिया |
तुमने जो खुशी चाही मुझसे ,
उसमें खुद को भुलाने लगी ,
अपना मन बहलाने लगी ,
अपना अस्तित्व भूल बैठी ,
मन की खुशियाँ मुझ से रूठीं ,
मैं तुम में ही खोने लगी |
आखिर तुम हो कौन ?
जो मेरे दिल में समाते गए ,
मुझको अपना बनाते गए ,
प्रगाढ़ प्रेम का रंग बना ,
उसमें मुझे डुबोते गए |
पर मैं ऊब चुकी हूँ अब ,
तुम्हारी इन बातों से ,
ना खेलो जज़बातों से,
मुझको खुद ही जी लेने दो ,
कठपुतली ना बनने दो ,
उम्र नहीं रुक पाती है ,
जीने की ललक अभी बाकी है |
आशा
मुझको अपने जैसा ढाला ,
बातों ही बातों में मेरा ,
मन बहलाना चाहा ,
स्वावलम्बी ना होने दिया ,
अपने ढंग से जीने न दिया |
तुमने जो खुशी चाही मुझसे ,
उसमें खुद को भुलाने लगी ,
अपना मन बहलाने लगी ,
अपना अस्तित्व भूल बैठी ,
मन की खुशियाँ मुझ से रूठीं ,
मैं तुम में ही खोने लगी |
आखिर तुम हो कौन ?
जो मेरे दिल में समाते गए ,
मुझको अपना बनाते गए ,
प्रगाढ़ प्रेम का रंग बना ,
उसमें मुझे डुबोते गए |
पर मैं ऊब चुकी हूँ अब ,
तुम्हारी इन बातों से ,
ना खेलो जज़बातों से,
मुझको खुद ही जी लेने दो ,
कठपुतली ना बनने दो ,
उम्र नहीं रुक पाती है ,
जीने की ललक अभी बाकी है |
आशा
29 अप्रैल, 2010
ख़ुद ही कविता बन जाओगी
मैंने देखा जब से तुम को ,
कुछ लिखने का मन करता है ,
तुम सामने बैठी रहो ,
एक कविता बनती जायेगी ,
सुंदरता का गहरा रंग ,
कविता में समाता जायेगा ,
सौंदर्य बोध जागृत होगा ,
मन में घर करता जायेगा ,
सौंदर्य के सभी आयाम ,
कविता में आते जायेंगे ,
कविता बढ़ती जायेगी ,
कलम न रुकने पायेगी ,
ऐसा लगता है मुझ को ,
मैं अपनी सुधबुध खो बैठूँगा ,
अधिक समय यदि तुम ठहरीं ,
खुद ही कविता बन जाओगी |
आशा
कुछ लिखने का मन करता है ,
तुम सामने बैठी रहो ,
एक कविता बनती जायेगी ,
सुंदरता का गहरा रंग ,
कविता में समाता जायेगा ,
सौंदर्य बोध जागृत होगा ,
मन में घर करता जायेगा ,
सौंदर्य के सभी आयाम ,
कविता में आते जायेंगे ,
कविता बढ़ती जायेगी ,
कलम न रुकने पायेगी ,
ऐसा लगता है मुझ को ,
मैं अपनी सुधबुध खो बैठूँगा ,
अधिक समय यदि तुम ठहरीं ,
खुद ही कविता बन जाओगी |
आशा
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