27 सितंबर, 2013
23 सितंबर, 2013
क्या करे
अपने आप में सिमटना
अंतर्मुखी होना 
अब क्यूं खलता है 
क्या यह कोई  कमीं है 
पहले कहा जाता था 
मुखर होना शोभा नहीं देता 
चेहरे का नूर हर लेता 
धीरे चलो धीरे बोलो 
 लड़कियों के ढंग सीखो 
बहुत कठिन था 
अपने में परिवर्तन करना 
तब अनवरत प्रयास  किये 
अपना अस्तित्व ही मिटा दिया 
नियमों पर खरा उतरने में 
अब तसवीर बदल गयी है 
कहा जाता है 
कभी घर से तो निकलो 
मिलो जुलो सर्कल बनाओ 
पर उलझ कर रह गयी है  
दो तरह के नियमों में 
पहले थी बाली उमर
खुद को बदलना संभव हुआ 
पर अब अपना है सोच  
जीने का एक तरीका है 
कैसे परिवर्तन हो 
समझ नहीं पाती 
सोचते सोचते 
अधिक ही थक जाती है 
कोइ हल नजर नहीं आता |
आशा 
18 सितंबर, 2013
घरोंदा
तेरी जुल्फ़ों की छाँव तले
एक स्वप्न सजाया मैंने 
प्यार  की सौगात से 
एक घरोंदा  बनाया मैंने |
है यही मंदिर मेरा 
छोटा सा संसार मेरा 
छोटी बड़ी खुशियों का 
है अपूर्व भण्डार यहाँ |
दिन भर धटती घटनाओं से 
जब कभी क्लांत होता हूँ 
पा कर सान्निध्य तेरा 
चिंता मुक्त होता हूँ |
यहाँ बिताए हर पल से 
जो सुकून मिलता है 
तेरी पनाह में रहने का 
ख्याल सजीव रहता है 
क्षय होता पल पल कहता है 
जिन्दगी जी भर कर जी ले 
मन में कोइ साध न रहे 
सभी पूर्ण कर ले |
15 सितंबर, 2013
नाता तेरा मेरा
जन्म से आज तक
 कष्टों से नाता रहा 
तुझ को न भूल पाया 
तुझ में खोना चाहा |
हैं प्रश्न  अनुत्तरित 
बारम्बार सताते  फिर भी 
है तेरा मेरा क्या नाता
 यह जग मुझे क्यूं भाता
यह छूट क्यूं नहीं पाता ?
है 
एक सेतु दौनों के बीच 
इह लोक से जाने के लिए 
तुझसे मिलने के लिए 
पर इतना सक्षम नहीं 
स्वयं पहुँच नहीं पाता  |
जाने कितनों को पहुंचाया 
हर बार बापिसी हुई 
पृथ्वी पर भार बढाया 
आकांक्षा अधूरी रही |
तुझे खोजने में 
तुझ तक पहुँचने में 
त्रिशंकु हो कर रहा गया 
प्रश्न वहीं का वहीं 
अनुत्तरित ही रहा 
है तेरा मेरा क्या नाता 
आशा 
12 सितंबर, 2013
अपनी भाषा
भारत में जन्मीं रची बसी 
मिट्टी के कण कण में 
यहाँ कई प्रदेश विभिन्न वेश 
भाषाएँ भी जुदा जुदा 
तब भी जुड़े एक बंधन में 
संस्कृति के समुन्दर में 
पर है 
अकूट भण्डार साहित्य का 
हर भाषा लगती  विशिष्ट 
और धनवान अपने वैभव में 
हिन्दी भी है उनमें एक  
न जाने क्यूं लगता है 
सरल सहज अभिव्यक्ति के लिए 
उसके जैसा कोइ नहीं 
तब भी जंग चल रही है 
अस्तित्व को बचाने की 
उसे राष्ट्र भाषा बनाने की 
वर्षों तक गुलाम रहे 
मन मस्तिष्क भी परतंत्र हुआ 
अंग्रेजी 
सर चढ़ कर बोली 
काम काज की भाषा बनी 
भूल गए अपनी भाषा ,
अपनी संस्कृति ,उसकी महानता 
तभी तो आज यहाँ अपनी  भाषा  
खोज रही अस्तित्व अपना |
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ (Atom)




