देख रहा हूँ मैं
बेड़ियों से भी दूरी
नहीं है
समझ रहा हूँ मैं |
जब तक बंधन मुक्त न
होगी
तुम कैसे जी पाओगी
उन्मुक्त हो समाज
में विचरण
कैसे कर पाओगी |
खुद का अस्तित्व कैसे खोजोगी
पराधीनता में घुट कर जियोगी
मुस्कान का मुखौटा
लगा चहरे पर
चह्कोगी नकली व्यबहार करोगी |
अस्तित्व खोज अधूरी रही यदि
आगे कैसे बढ़ पाओगी
क्या रखा है ऐसे
बंधनों में
कि तुम्हारा वजूद ही खो जाए |
उन्मुक्त जीवन से बड़ा क्या है
अनावश्यक बंधन देते
त्रास
नियम समाज के बिना
सोचे
अपनाने में है आनंद क्या |
इस दुनिया में आते
ही
वर्जनाओं की झड़ी लग
जाती
सब समाज का अपना
क्या है
आज तक जान नहीं पाया |
विपरीत परिस्थिति में
तुम्हें अपनया है
पर तुम्हारे लिए कुछ कर न पाया
है बड़ा संताप मुझे |
आशा