वीणा के स्वर कहीं खो गए हैं ,
मुझसे हैं नाराज ,
जाने कहाँ गुम हो गए हैं ,
उनके बिना रिक्तता ,
अनजाने ही मुझमें,
घर कर गई है ,
जब चाहे अपना,
आभास करा जाती है ,
उसे भरना बहुत मुश्किल है ,
जो कुछ भी हुआ था ,
उसकी याद दिला जाती है ,
अनेकों यत्न किये मैने ,
फिर भी उसे,
बिसरा नहीं पाती ,
बेचैनी और बढ़ती जाती ,
पहले जब वीणा बजती थी ,
तार मन के झंकृत होते थे ,
मन जीवंत हो जाता था ,
दुनिया से दूर बहुत ,
अपने में खो जाता था ,
इस बार तार जो टूटा है ,
उसे जोड़ना बहुत कठिन है ,
यदि जुड भी गया ,
तो वह मधुरता ,
शायद ही आ पायेगी ,
फिर भी हूं प्रयत्न रत ,
शायद इसे जोड़ पाऊं ,
स्वर वीणा के खोज पाऊं ,
उन में ही रम जाऊं |
आशा
स्वयं को खोजती सी सुन्दर अभिव्यक्ति ....
जवाब देंहटाएंbahut pyari kavita
जवाब देंहटाएंabhar
आशा जी नमस्कार! बहुत ही अर्थपूर्ण रचना हैँ। आभार! -: VISIT MY BLOG :- जब तन्हा होँ किसी सफर मेँ। ............गजल को पढ़कर अपने अमूल्य विचार व्यक्त करने के लिए आप सादर आमंत्रित हैँ। आप इस लिँक पर क्लिक कर सकती हैँ।
जवाब देंहटाएंटूटे तार को मत जोड़िये ! उसे बदल डालिए ! वीणा के बाकी सभी तारों को यथोचित कसिये ! और आँखें मूँद कर एक प्यारा सा राग छेड़िये देखिये कितने मधुर संगीत की सृष्टि होती है ! जब तक टूटे तार को जोड़ने की कोशिश करेंगी वह बेसुरा ही बजेगा ! मेरी शुभकामनाएं स्वीकार करें !
जवाब देंहटाएंसाकारात्मक भाव का सृजन करती रचना।
जवाब देंहटाएंहिन्दी का प्रचार राष्ट्रीयता का प्रचार है।
हिंदी और अर्थव्यवस्था, राजभाषा हिन्दी पर, पधारें
खुबसूरत भाव लिए खुबसूरत रचना ...आभार
जवाब देंहटाएंअक्सर रुखी रातों में
इस बार तार जो टूटा है ,
जवाब देंहटाएंउसे जोड़ना बहुत कठिन है ,
यदि जुड भी गया ,
तो वह मधुरता ,
शायद ही आ पायेगी ,
फिर भी हूं प्रयत्न रत ,
शायद इसे जोड़ पाऊं ,
स्वर वीणा के खोज पाऊं ,
उन में ही रम जाऊं |
वाह बहुत खूब । जानती हैं हम हमनाम हैं ।