राम तुम्हारी नायक छवि ने 
जन मानस में वास किया 
प्रजावत्सल राजा को 
उसने सिंहासनारूढ़ किया |
तुम्हारे असाधारण गुणों को 
कोई यूं ही याद नहीं करता 
वे थे सबसे भिन्न 
सभी जानते थे |
सब के प्रति व्यवहार तुम्हारा 
स्नेहपूर्ण होता था 
सदा तुम्हारा हाथ 
न्याय हेतु उठता था |
जाने कितने गुण छिपे थे 
रूपवान व्यक्तित्व में 
इसी लिए तुम विशिष्ट रहे 
जन जन के मन में |
पर राम मुझे है 
एक शिकायत तुमसे 
तुमने क्यूँ अन्याय किया 
अपनी पत्नी सीता से |
एक पत्नी व्रत धारण किया 
वन वन भटके जिसके लिए 
पर निकाल बाहर किया 
एक अकिंचन के कहने से |
क्या कोई कर्तव्य न था 
गर्भवती सीता के प्रति 
जब कि जानते थे 
दोष न था उसमें कहीं |
अग्नि परीक्षा उसने दी थी 
क्या वह पर्याप्त न थी 
वह पृथ्वी  में समाई 
तुम्हारी आत्मा पर बोझ हुई 
क्या यह अन्याय न था तुम्हारा 
फिर भी लोग तुम्हें  पूजते हैं
आदर्श तुम्हें मानते हैं |
आशा 

वाह क्या बात! बहुत ख़ूब!
जवाब देंहटाएंइसी मोड़ से गुज़रा है फिर कोई नौजवाँ और कुछ नहीं
एक शिकायत तुमसे
जवाब देंहटाएंतुमने क्यूँ अन्याय किया
अपनी पत्नी सीता से |
सुन्दर प्रस्तुति-
आभार आदरणीया-
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (08-12-2013) को "जब तुम नही होते हो..." (चर्चा मंच : अंक-1455) पर भी होगी!
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुंदर.
जवाब देंहटाएंगहन भाव लिए भावपूर्ण रचना...
जवाब देंहटाएंभावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने..
जवाब देंहटाएंसच्चे अर्थों में पतिव्रता अपनी अर्धांगिनी सीता के प्रति मर्यादा पुरुषोत्तम के अन्याय को आपने सशक्त अभिव्यक्ति दी है ! बहुत सुंदर रचना !
जवाब देंहटाएं