झील सी गहरी नीली आँखें 
खोज रहीं खुद को ही 
नीलाम्बर में धरा पर 
रात में आकाश गंगा में |
उन पर नजर नहीं टिकती 
कोई उपमा नहीं मिलती 
पर झुकी हुई निगाएं 
कई सवाल करतीं |
कितनी बातें अनकही रहतीं 
प्रश्न हो कर ही रह जाते 
उत्तर नहीं मिलते 
अनुत्तरित ही रहते |
यदि कभी संकेत मिलते 
आधे अधूरे होते 
अर्थ न निकल पाता 
कोशिश व्यर्थ होती  पढने की |
पर मैं खो जाता  
ख्यालों की दुनिया में 
मैं क्यूं न डुबकी लगाऊँ 
उनकी गहराई में |
पर यह मेरा भ्रम न हो 
मेरा श्रम व्यर्थ न हो 
मुझे पनाह मिल ही जाएगी 
नीली झील सी  गहराई में |
आशा 

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